अनुभवक गंगासँ धोअल अछि आकाश
आचरणक लेहूसँ गाढ़ कारी कालिन्दी
पटुताक पोखरिसँ उठैत छैक भोरक भाफ
जे पसरल अकड़ि कऽ
आ बनि कऽ से शेषनाग
किन्तु,
ओ तैयो
दुर्वासाक बोलीमे ललकारि रहल ब्रह्माकेँ
की थिक ई औचित्यक आश्लेश?
वा अहं केर नहि आक्रोश?
वर्गवादी पूँजी
आ अर्थवादी सत्ता
सबतरिसँ निछक्का
सुरेबगर आकृति दिस आकुल आ व्याकुल।
चिकरैत साइरन अद्धि कहियासँ ने कहैत!
चेत की तैयो भेल?
ज्यामितिक दृष्टिसँ समस्याक सिद्धि हो
विकल्पक व्याकरण बनिञो कऽ की केलक अछि?
रहस्यक
खुट्टीसँ
टाङल
जबरन
गणित मेघ
मणित लोक
अगणित नर मुण्ड-काय
कारण अवस्थामे
सभ खन जे बाधक छल,
बाझल अणु ताग-ताग
साटल हो पात-पात
किन्तु, उद्भ्रान्तिक आयोग नहि समेटल क्यो?
अनवरत तृष्णाक तेखुरसँ तानल
अभाव गन्ध
हीन स्वर
साध्यमे प्रपंच बल
कौशलक दिशा सूचि नहि आबो कनिञो गड़ल?
विकृति विकासवाद!
स्वीकृत विनाशकाल
ताबत घरि जाबत हम फूकि दैत रहल छी,
अन्यथाक आबामे हम पैसि जे रहल छी,
समष्टि
प्रलय बाढ़िमे भसय,
की अछि ने पसिन्न?
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 95)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रमानन्द रेणु
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
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