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पोटली भरम की

potli bharam ki

कमलेश

कमलेश

पोटली भरम की

कमलेश

अच्छा हो आदमी जान ले हालत अपने वतन की।

उजले पाख के आकाश से जगमग शहर में

आधी रात भटकते उसे पता लग जाए

कोई नहीं आश्रय लौटे जहाँ रात के लिए

उनींदा, पड़ जाए जहाँ फटी एक चादर ओढ़े।

अच्छा हो आदमी देख ले सड़कों पर बुझती रोशनी।

ईंट-गारा-बाँस ढोते सूचना मिल जाए उसे

बांबी बना चुके हैं दीमक झोपड़े की नींव में

काठ के खंभे सह नहीं सकेंगे बरसाती झोंके

बितानी पड़ेंगी रातें आसमान के नीचे।

अच्छा हो दुनिया नाप ले सीमाएँ अंत:करण की।

देखते, बाँचते अमिट लकीरें विधि के विधान की

अपने सगों को कुसमय पहुँचा कर नदी के घाट पर

टूट चुके हैं रिश्ते सब, पता लग जाए उसे

नसों में उभर रही दर्द की सारी गाँठें।

अच्छा हो, आदमी बिखेर दे पोटली अपने भरम की।

स्रोत :
  • रचनाकार : कमलेश
  • प्रकाशन : कविता कोश

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