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सफ़ेदी

safedi

चेस्लाव मीलोष

अन्य

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और अधिकचेस्लाव मीलोष

     

    सफ़ेद, सफ़ेद, सफ़ेद, सफ़ेद शहर जिसमें
    निरंतर भटकते राशि-चक्रों की छाया में जन्मी औरतें
    रोटी और सब्ज़ियाँ ले जाती है
    झरनों के जबड़े हरे सूर्य पर पानी की फुहारें छोड़ते हैं
    जैसा बहुत पहले वैवाहिक रस्मों के दौरान, ठंडी भोर में टहलते
    बस्ती के एक छोर से दूसरे पर फेंका जाता था
    किसी स्कूली बच्चे के कमरबंद का बकसुआ गहरी मिट्टी में कहीं पड़ा है
    तहख़ाने और ताबूत काले बेरी के रस्से से बँधे हैं
    स्पर्श की अनुभूतियाँ, बारंबार नई शुरूआतें,
    न कोई जानकारी न कोई यादें सही साबित हुईं
    गूँगा हो जाने के बाद एक सकुचाते राहगीर की तरह
    मैं बाज़ार की सड़क से गुज़रता हूँ
    विजेताओं के खेमों में उफन रहा है जलती मोमबत्तियों का मोम
    ग़ुस्सा विदा ले चुका है मुझसे और मेरी ज़ुबान पर
    जाड़े के सेबों का कड़ुआ स्वाद है
    राख से उठकर दो बंजारनें एक छोटा ढोल बजाती हैं
    और नाचती हैं मनुष्य के अमरत्त्व के लिए
    बसे हुए अथवा उजाड़ आसमान में (किसी को परवाह नहीं)
    सिर्फ़ कबूतर हैं और प्रतिध्वनियाँ
    बहुत मुखर है मेरा विलाप, क्योंकि मेरा विश्वास था
    कि शाश्वत है हताशा और प्रेम शाश्वत है
    यह सफ़ेद शहर जो कुछ नहीं माँगता, कुछ नहीं
    जानता, कोई नाम तक नहीं इसका पर यह था
    और हमेशा रहेगा

         
    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : चेस्लाव मीलोष
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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