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पत्तों पर बारिश

patton par barish

दर्शन बुट्टर

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दर्शन बुट्टर

पत्तों पर बारिश

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    जिज्ञासा

    इतना बारीक न कातो गुरुदेव! 
    कि पकड़ में न आए 
    तुम्हारी संवेदना का तंतु

    कई बार तेरे हर्फ़ 
    ख़ला में से पैदा होते 
    समा जाते ख़ला में ही 
    मेरे थल तरसते रहते 
    अर्थ की बूँदों को

    कई बार तेरी बारिश 
    पत्तों पर पड़ती 
    भीगतीं नहीं मेरी जड़ें 
    ज्ञान का भार उठाए रहते पत्ते 
    आकाश के निर्मल हो जाने तक

    बुलंदियों को 
    दूर से देखकर हैरान होती है
    उड़कर बैठ नहीं सकती 
    ऊँचे कलशों पर

    कोई वर दो गुरुदेव! 
    कि पिघल जाए रगों में जमी बर्फ़ 
    सहजे सहज

    तेरे हर्फ़ों की आभा से 
    झिलमिला उठें 
    दर्द की अँधेरी कंदराएँ

    मेरी ज़मीन पर
    इतना साफ़ बहे हर्फ़ों का दरिया
    कि मैं देख सकूँ 
    तल में पड़े मोतियों को

    तेरे चिंतन की बूँद 
    समा सके मेरे बंजर में 
    कोई ऐसा वर दो गुरुदेव!...


    गुरुदेव

    हे सखी! 
    वही स्वभाव दीये का, जो सूरज का 
    वही तासीर कण की, जो कायनात की 
    वही दर्द पाताल का, जो आकाश का

    कविता तो महज़ 
    भीतरी दर्द की हूक होती 
    तड़प में संभावना की हल-रेख काढ़ती 
    दीये से सूरज जलाती

    कविता के आनंद के लिए 
    कुरेदना पड़ता संवेदना को 
    अर्थों के दहकते अंगार पर 
    मेहँदीवाले पैर धरने पड़ते

    जड़ों में चाह हो 
    तो पत्तों पर पड़ी बारिश 
    रम जाती रेशे-रेशे में

    दर्द में हरारत हो 
    तो पिघल जाती 
    रगों में जमी बर्फ़ भी

    हर्फ़ों में से झरता नूर 
    चेतना में समाती सहज ही 
    साँसों की लय 
    आहिस्ता-आहिस्ता 
    नृत्य जगाती पैरों में

    हमारी तड़प ही भरती 
    हर्फ़ों और अर्थों के बीच की दूरी को 
    कंपन के गज़ ही मापते 
    ज़ख़्मों की गहराई

    मुश्किल नहीं कोई भी कविता 
    बस तुम 
    अपने ज़ख़्मों को हरा रहने दो...

    स्रोत :
    • पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : दर्शन बुट्टर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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