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एक असाधारण जोखिम

ek asadharan jokhim

व्लादिमीर मायाकोव्स्की

अन्य

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व्लादिमीर मायाकोव्स्की

एक असाधारण जोखिम

व्लादिमीर मायाकोव्स्की

और अधिकव्लादिमीर मायाकोव्स्की

    सूर्यास्त सैकड़ों सूर्यों की तरह धधक रहा था,

    ग्रीष्म जुलाई की ओर लुढ़क रहा था,

    भयानक थी गर्मी

    मारक थी गर्मी—

    ऐसे में जो घटा मेरे ग्रीष्मनिवास में, बयान है।

    अकूलोव पहाड़ी अपनी कूबड़

    उठाए हुए खड़ी थी,

    नीचे तलहटी में गाँव था,

    खपरैलें जैसे आवरण में लिपटी पड़ी थीं।

    हाँ, तो गाँव से दूर

    एक गड्ढा था,

    गड्ढे में रोज़-रोज़

    धीमे-धीमे मगर रोज़

    सूरज सोने की कोशिश में

    लुढ़कता-पुढ़कता था, इतना मैं जानता हूँ।

    और फिर

    दूसरे दिन

    सूरज फिर उगता और

    चमकता

    और मुझे अंततः पागल कर देता था

    रोज़ वही फट-पड़ता समय।

    और एक दिन इस सबसे थककर और ऊबकर

    मैं तमतमाए सूरज के सामने ही चीख़ पड़ा

    अबे लोफ़र उतर

    तेरे पास बादलों में

    एक गद्देदार जगह है और मैं हूँ कि

    साल-दर-साल यहाँ झख मार रहा हूँ

    और पोस्टरों में सुर्ख़ी पैदा कर रहा हूँ।

    “सुन, मैं चिल्लाया, “सुन सोने की खोपड़ी,

    सुस्त पड़े रहने के बजाय

    क्यों ज़रा देर के लिए चाय को रुक जा।

    यह मैंने क्या किया!

    अब मेरी ख़ैर नहीं।

    दूर-दूर किरणें फैलाता,

    दैत्याकार डग भरता

    सूरज

    मेरी पुकार पर चला रहा है।

    ढोंग करता हुआ कि डरा नहीं हूँ मैं

    मैं पीछे हटता हूँ।

    वह रहा है,

    वह पास चुका है,

    मैं उसकी श्वेत-सुर्ख़ आँखें देखता हूँ

    खिड़कियों और दरवाज़ों के रास्ते

    मुस्तंड सूरज भीतर आया

    और दम लेकर

    बोला धीमी आवाज़ में :

    सृष्टि के बाद

    पहली बार मैं अपनी दिनचर्या बदल रहा हूँ।

    कवि, जाओ

    लाओ कुछ मुरब्बा और चाय।

    वरना बुलाया क्यों?”

    और हालाँकि मैं गर्मी में तर-ब-तर हो रहा था

    लगभग रो रहा था,

    समोवार लेकर हाज़िर हुआ।

    “तशरीफ़ रखो

    कामरेड आफ़ताब।”

    मगर चिल्लाने का कोई असर नहीं हुआ।

    बुरा हो मेरी बदमगज़ी का।

    हारा हुआ मैं

    कुर्सी के हत्थे पर बैठा था :

    डरा-डरा जाने क्या हो!

    मगर सूरज से

    एक विचित्र प्रकाश फूट रहा था—

    वह उतना परेशान नहीं नज़र आता था

    और मैं अपने संकट को भूल,

    मेरा डर जाता रहा था,

    बैठा हुआ था

    आफ़ताब से बातें करता हुआ।

    मैंने इसकी

    और उसकी

    वहशी रोस्ता की

    बातें कीं।

    ठीक! ठीक! उसने कहा

    “बालक! हिम्मत मत हारो।

    परवा मत करो

    तुम्हारा ख़्याल है वहाँ ऊपर

    दिन-भर चमकना आसान है?

    ज़रा कोशिश कर देखो!

    मगर क्योंकि यह काम मेरे सुपुर्द है

    मेरा नारा है

    करो या मरो।”

    इस तरह हम अँधेरा होने तक, साफ़ कहूँ तो

    कल रात तक बातें करते रहे।

    हुह!

    वाक़ई अँधेरा!

    झिझक मिट चुकी थी

    मज़े में दोनों का वक़्त कटा।

    और थोड़ी ही देर बाद मैंने

    याराना उसके कंधे थपथपाए

    और उसने भी धौल जमाकर कहा,

    तुम और मैं

    हम दो हैं, आओ कुछ और जवाँमर्दी का परिचय दें।

    उठो कवि, आओ।

    आओ हम गाएँ

    और चिल्लाएँ

    ताकि दुनिया की मुर्दनी टूटे

    मैं किरणें बरसाऊँगा जो मेरी हैं

    और तुम

    तुम अपनी कविताएँ।”

    ढहा दी निराशा की दीवार

    और रात के क़ैदख़ाने को

    हम दोनों की दोनाली मार ने

    और थथर-मथर

    फूट पड़ा

    कविता और प्रकाश का फ़व्वारा।

    सूरज थक चलता है

    और सोने को प्रस्थान करता है

    और तब पूरी ताक़त से फूट पड़ता हूँ मैं

    और एक बार दिन फिर निकलता है।

    हमेशा चमकने

    और हर जगह गमकने को

    ज़िंदगी के आख़िरी क़तरे तक

    दमकने को

    तुम्हारे भीतर एक

    अंगारा है

    मेरा और सूरज

    दोनों का यह नारा है।

    रोस्ता : रूसी समाचार एजेंसी जो बाद में 'तास' के नाम से पुनर्गठित की गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 86)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : व्लादिमीर मायाकोव्स्की
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

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