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और नहीं

aur nahin

चेस्लाव मीलोष

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और अधिकचेस्लाव मीलोष

     

    मुझे लगता है कि मैं कभी बताऊँ कैसे
    मेरे विचार बदले कविता के बारे में
    और यह कैसे हुआ कि मैं आज अपने को
    पुराने जापान के कई सौदागरों और दस्तकारों में से एक
    समझने लगा जो कविता सँजोया करते थे
    पुष्पित चेरी, गुलदाउदी और चाँद के बारे में

    काश मैं वेनिस की गणिकाओं का बयान कर सकता
    प्रासाद के छज्जे पर जिस तरह टहनी से छेड़तीं वे मोर को
    और कमख़ाब, मेखला के मोतियों के बाहर मुक्त रखतीं
    अपने भारी स्तनों को और वह रक्ताभ वैभव
    जहाँ वस्त्रों पर बटन के दबाव से उभरता उदर
    देता ऐसा साफ़ दिखाई जैसे सुबह धरती पर उतरते ही
    दिखे जहाज़ के कप्तान को सोने से लदा जहाज़
    और यदि मैं चिपचिपे पानी से भिड़े दरवाज़ों वाले
    क़ब्रिस्तान में पड़ी उनकी अभागी हड्डियों के लिए
    उनके आख़िरी इस्तेमाल किए गए कंधे से बेहतर सांत्वना
    का शब्द ढूँढ़ पाता, अकेला जो रोशनी के
    इंतज़ार में क़ब्र के पत्थर नीचे सड़ रहा है

    तो मैं संदेह नहीं करता, उदासीन चीज़ों से
    क्या हासिल हो सकता? कुछ नहीं, अधिक से अधिक सौंदर्य
    और इसलिए पुष्पित चेरी काफ़ी हैं हमारे लिए
    और गुलदाउदी और पूरा चाँद

         
    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 39)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : चेस्लाव मीलोष
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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