एक फ़ेंस के बारे में संक्षिप्त चिंतन
ek fens ke bare mein sankshipt chintan
मिरोस्लाव होलुब
Miroslav Holub

एक फ़ेंस के बारे में संक्षिप्त चिंतन
ek fens ke bare mein sankshipt chintan
Miroslav Holub
मिरोस्लाव होलुब
और अधिकमिरोस्लाव होलुब
एक फ़ेंस
न कहीं शुरू होती है
न कहीं ख़त्म
और
अलगाती है उस जगह को जहाँ वह है
उस जगह से जहाँ वह नहीं है
बहरहाल, बदक़िस्मती से, हर फ़ेंस
छूट देती है कुछ न कुछ को,
कहीं कुछ छोटी और कहीं कुछ
बड़ी चीज़ों को, इस तरह
दरअस्ल अलगाती नहीं है फ़ेंस, इंगित
भर करती है कि कुछ है जिसे चाहिए अलगाना।
और यह कि दंडित किया जाएगा उन्हें
करेंगे जो अनधिकार प्रवेश।
देखें तो इस तरह
रखा जा सकता है
फ़ेंस की जगह पर एक क्रुद्ध शब्द
और कभी-कभी विनयशील शब्द भी,
लेकिन सूझती नहीं है यह बात
एक नियम की तरह किसी को
इस तरह देखें तो
मुकम्मल फ़ेंस
वह है
जो अलगाती है कुछ नहीं को कुछ नहीं से
ऐसी एक जगह को, जहाँ कुछ नहीं है
को ऐसी एक जगह से जहाँ पर भी नहीं है कुछ
वही है सचमुच की फ़ेंस, एक कवि के शब्द की तरह।
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 121)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : मिरोस्लाव होलुब
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
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