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पिताजी और चौबीस इंच की साइकिल

pitaji aur chaubis inch ki cycle

प्रदीप त्रिपाठी

प्रदीप त्रिपाठी

पिताजी और चौबीस इंच की साइकिल

प्रदीप त्रिपाठी

पिता की बढ़ती उम्र के साथ-साथ

साइकिल बूढ़ी होती गई

और पिता का प्रेम बढ़ता गया

सचमुच इतना प्रेम

कि पैदल होने के बाद

साइकिल पिता के साथ

पैदल हो जाती हैआज भी

जी हाँ,

मैंने पिता की साइकिल को

पैदल चलते देखा है।

मान्यता ऐसी है कि

साइकिल के साथ पिता का पैदल होना

अथवा पिता के साथ साइकिल का पैदल होना

अब फलाने के पिताजी की पहचान है।

यक़ीनन पिता का प्रेम

जितना अपने बच्चों से है

उतना ही

चौबीस साल पुरानी

साइकिल से भी।

सचमुच

साइकिल चलाते हुए पिताजी

हमेशा जवान दिखते हैं।

पिता की साइकिल को

गाँव का हर आदमी

पहचानता है।

साइकिल में करियर और स्टैंड के होने के साथ-साथ

घंटी का ख़राब होना

पिता की साइकिल होना है।

महज़ कहने भर के लिए

पिताजी साइकिल से चलते हैं

और साइकिल पिताजी से...

सच तो यह है कि

पिताजी और साइकिल

दोनों पैदल चलते हैं।

सचमुच तुम्हारी साइकिल का पुराना ताला

उसमें लिपटी हुई जर्जर सीकड़

जब हनुमान मंदिर के छड़ों में नाहक़ जकड़ दी जाती है

तो बच्चे सवाल करते हैं

बाबा! बताओ इतनी पुरानी साइकिल को कोई पूछेगा क्या?

यक़ीनन

पिताजी को पुराने सामानों को सहेजकर रखने की पुरानी आदत है

पिताजी सहेजकर रखते हैं कबाड़े को भी

अपनी पुरानी मान्यताओं के साथ

इसीलिए पिता की नज़र में

उनकी साइकिल जवान है, आज भी।

दुनिया में ऐसे पिता बहुत कम होते हैं

जिनकी साइकिल को

पिता के साथ-साथ

चलाती होगी उनकी तीसरी पुस्त भी

या चलती होगी किसी पिता की तीसरी पुस्त

चौबीस इंच की साइकिल से

आज भी।

स्रोत :
  • रचनाकार : प्रदीप त्रिपाठी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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