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फूँक

phoonk

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

बसंत बापट

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और अधिकबसंत बापट

    कहा—बैठो, मैं बैठ गया

    हँसी तुम, मैं भी हँसा।

    बस इतना ही;

    लेकिन मन भटक रहा था

    जाने कहाँ?

    दरवाज़े का परदा हटाकर

    तुम चली गई जल्दी से

    मेरा साथ देने को रह गईं

    सिर्फ़ निशानियाँ—तुम्हारी सुस्त

    ज़िंदगी की।

    क्यों इस ज़ाली के परदे पर

    हृदय की उलटी आकृति काढ़ी है तुमने?

    काँच की अलमारी में

    क्यों रखे हैं फूस के तोता और मैना?

    लकड़ी के फलों पर

    गटापारचे के पक्षी उड़ते हैं,

    और दीवार पर

    रवि वर्मा के सशक्त चित्र; मृगों के

    काली मखमल पर

    पति के नाम कब सुंदर कसीदा;

    यदि चूकी हो उनमें का एक भी टाँका

    तो मैं हो जाऊँ कृतार्थ।

    पूछा तुमने—क्या लोगे?

    कितना सीधा सवाल यह

    क्या लूँ भला?

    दोगी क्या वो सब; पहले जैसा?

    मुझे चाहिए

    खट्टी इमली का हिसाब

    वे लालची होठ, वो गुपचुप, वो क़समें;

    वो पानी, शक्कर घुली जिसमें।

    तुम्हारा और पतिदेव का यह फ़ोटो

    अच्छा है :

    तुम्हारा सारा सौंदर्य

    इन फूले गालों पर फूट रहा है

    बलिष्ठ भुजा, चौड़े स्कंध

    आँखों में कर्तृत्व की चमक;

    ख़ूब है।

    मुझे आता है ग़ुस्सा

    चित्र में तुम्हें ऐसा निर्विकार देखकर

    मानो कभी कुछ हुआ ही नहीं था।

    मैं तुम्हें सुनाने आया था

    ज़हर-भरा

    कम से कम एक व्यंग्य-भरा वाक्य;

    पर उतना भी हो नहीं सका मुझसे।

    और तुम

    लगातार हँसती ही रही,

    अब इतना ही बता

    देहरी पर तुम्हारी आँखों में

    क्यों छलके आँसू?

    सुपारी खाते ही

    गले में क्या कुछ अटक गया?

    पर, रहने दो, मत बताओ ये सब

    वो भी

    सालेगा मुझे

    मन में एक और दर्द

    एक और फूँक बन कर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 185)
    • रचनाकार : बसंत बापट
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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