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पेड़ों की मौत

peDon ki maut

अखिलेश सिंह

अखिलेश सिंह

पेड़ों की मौत

अखिलेश सिंह

मैंने मर जाते हुए देखा है

बहुत से पेड़ों को

वे चीख़ते हुए गिर पड़ते थे

और धूल का ग़ुबार उठता था

एक सूनापन हमेशा के लिए थिर जाता था

कई बार उन्हें बहुत देर तक मारा गया

उनसे झरता रहा था बुरादा, पानी, गदु

कई बार वे वृद्ध होकर, गिरकर ख़ुद ही मर गए

और कई बार किसी ऊँचे ढूहे पर वे खड़े-खड़े ही मर गए

उनका शरीर पूरा काला पड़ गया था

उस समय वे अपने अकेलेपन से चीख़ा करते थे—रोज़ रोज़

उनकी देह को भीतर ही भीतर मकरोरे खा चुके थे

कुछ पेड़, गिरे और टिके रहे, देते रहे फल, आश्रय और मनो-विनोद

लेकिन फिर उनको भी मारा गया

पेड़ मर रहे थे चिड़ियाँ चिंचिया रही थीं

अंडे फूट रहे थे, संसार उजड़ रहा था

संसार उजड़ गया, पेड़ मर गए

पेड़ मर रहे थे, मैं छटपटा रहा था

लेकिन यह छटपटाहट उतनी नहीं थी कि वे देख सकें

उतना आवेग नहीं था कि उनकी हत्या रुके

मैं भी गवाह बना बड़ी-बड़ी कायाओं के सामूहिक हत्याकांड का

वे पेड़ मेरी स्मृतियों में हैं

उनके भूतो को दबा दिया गया है और

वहाँ मनुष्य की सफलता के झंडे फहरा रहे हैं

पेडों के विलाप में, अपने वंश के नाश की चिंता थी

मनुष्यों के आत्मघात पर क्षोभ था

खीझ थी वृक्ष-प्रेम के विज्ञापनों पर

जोकि किसी मृत पेड़ की देह से बने काग़ज़ पर छपा था

बचपन से लेकर जवान होने तक की मेरी समूची कहानी में

बहुत से पेड़ों की निर्मम मौतों की कहानी भी है।

स्रोत :
  • रचनाकार : अखिलेश सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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