मुक्त गगन है, मुक्त पवन है

mukt gagan hai, mukt pavan hai

माखनलाल चतुर्वेदी

माखनलाल चतुर्वेदी

मुक्त गगन है, मुक्त पवन है

माखनलाल चतुर्वेदी

मुक्त गनन है, मुक्त पवन है, मुक्त साँस गरबीली,

लाँघ सात लँबी सदियों को हुई शृंखला ढीली।

टूटी नहीं कि लगा अभी तक उपनिवेश का दाग़

बोल तिरंगे तुझे उड़ाऊँ या कि जगाऊँ आग?

उठ रणराते, बलखाते, विजयी भारतवर्ष

नक्षत्रों पर बैठे पूर्वज माप रहे उत्कर्ष।

पूरब के प्रलयी पंथी, जग के सेनानी

होने दे भूकंप कि तूने, आज भृकुटियाँ तानी।

नभ तेरा है?—तो उड़ते हैं वायुयान ये किसके?

भुज-वज्रों पर मुक्ति-स्वर्ण को देख लिया है कसके?

तीन ओर सागर तेरा है, लहरें दौड़ी आती

चरण, भुजा, कटिबंध देश तक वे अभिषेक सजातीं।

क्या लहरों से खेल रहे वे हैं जलयान तुम्हारे

नहीं?—अरे तो हटे अब तक लहरों के हत्यारे?

वह छूटी बंदूक़, गोलियाँ, क्या उधार हैं आई

तो हमने किसकी करुणा से यह आज़ादी पाई?

उठ पूरब के प्रहरी, पश्चिम जाँच रहा घर तेरा

साबित कर तेरे घर पहले होता विश्व-सवेरा?

तुझ पर पड़ जो किरणें जूठी हो जाती, जग पाता

जीने के ये मंत्र सूर्य से सीखो भाग्य-विधाता।

सूझों में, साँसों में, संगर में, श्रम में, ज्वारों में

जीने में, मरने में, प्रतिभा में, आविष्कारों में।

सागर की बाँहें लाँघे हैं तट-चुंबित भू-सीमा

तू भी सीमा लाँघ, जगा एशिया, उठा भुज-भीमा।

वह नेपाल प्रलय का प्रहरी, वह तिब्बत सुर-धामी

वह गांधार युगों का साथी, वीर सोवियत नामी।

तुझे देख उन्मुक्त आज से उन्नत बोल रहे हैं

चीन, निपन, बर्मा, जाबा के मस्तक डोल रहे हैं।

आज हो गई धन्य प्रबल, हिंदी वीरों की भाषा

कोटि-कोटि सिर क़लम किये फूली उसकी अभिलाषा

जग कहता है तू विशाल है, तू महान, जय तेरी

लोक-लोक से बरस रही तुझ पर पुष्पों की ढेरी।

तीन तरफ़ सागर की लहरें जिसका बने बसेरा

पतवारों पर नियति सजाती जिसका साँझ-सवेरा,

बनती हो मल्लाह-मुट्ठियाँ सतत भाग्य की रेखा

रतनाकर रतनों का देता हो टकराकर लेखा,

उस लहरीले घर के झंडे देश-देश में लहरें

लहरों से जागृत नर-प्रहरी कभी रुककर ठहरें।

उठता हो आकाश, हिमालय दिव्य द्वार हो अपना

सागर हो विजया माँ तेरा उस परसों का सपना।

चिंतक, चिंताधारा तेरी आज प्राण पा बैठी

रे योद्धा प्रत्यंचा तेरी, उठ कि बाण पा बैठी।

लाल किले का झंडा हो, अंगुलि-निर्देश तुम्हारा

और कटे धड़ वाला अर्पित तुमको देश तुम्हारा।

धड़ से धड़ को जोड़ बना तू भारत एक अखंडित

तेरे यश का गान करेंगे प्रलय-नाद के पंडित।

ब्रिटिश राज टुकड़े-टुकड़े है क्या समाज का भय है

उठ कि मसल दे शिथिल रूढ़ियाँ तेरी आज विजय है।

तोड़ अमीरों के मनसूबे, गिन दिनों की घड़ियाँ

बुला रही हैं, तुझे देश की कोटि-कोटि झोपड़ियाँ।

मिले रक्त से रक्त, मने अपना त्यौहार सलौना

भरा रहे अपनी बलि से माँ की पूजा का दौना।

हथकड़ियों वाले हाथों हैं, शत-शत वंदनवारें

और चूड़ियों की कलाइयाँ उठ आरती उतारें।

हो नन्हीं दुनियाँ के हाथों कोटि-कोटि जयमाला

मस्तक पर दायित्व, हृदय में वज्र, दृगों में ज्वाला।

तीस करोड़ धड़ों पर गर्वित, उठे, तने, ये शिर हैं

तुम संकेत करो, कि हथेली पर शत-शत हाज़िर हैं।

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