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पहली बार मैंने आग को कविता में बदलते हुए देखा

pahli baar mainne aag ko kavita mein badalte hue dekha

निवेदिता झा

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निवेदिता झा

पहली बार मैंने आग को कविता में बदलते हुए देखा

निवेदिता झा

और अधिकनिवेदिता झा

    कितनी सुंदर दिखती है माँ

    खुली धूप में ऐनक चढ़ाए किताब में खोई हुई

    मुझे उसकी साड़ी

    नदियों की तरह दिखती है

    जिसमें असंख्य सूत की डोरिया हैं

    कभी-कभी मेरे पैर उलझ जाते हैं, और

    आकाश उलट जाता है

    सफ़ेद लिबास में

    सारे अक्षर चाँद को थामें उतर रहे होते हैं

    माँ कुछ लिखते हुए हँसती है और तारे उसके सिरहाने उतर जाते हैं

    उसकी रौशनी में माँ का चेहरा दमकता है

    जैसे अभी-अभी कोई कविता उसकी पकड़ में आई हो

    फिर दोनों सहेलियों की तरह शब्दों से खेलती हैं

    कविता कभी गुम हो जाती है,

    कभी ख़ामोश कभी हवा की मानिंद ज़ोर से झूमती है

    और माँ का जुड़ा खुल जाता है

    मैं चुपके से देखती हूँ माँ को

    पास से गुज़र जाती हूँ

    उसे कुछ ख़बर नहीं होती

    बस सुबह होने के पहले वो लिख लेना चाहती है

    तमाम स्त्रियों का इतिहास

    उन स्त्रियों के बारे में जिसनें सबसे पहले पानी की खोज की होगी

    जिसने सबसे पहले लोहा ढूँढ़ा होगा

    और जिसने सबसे पहले आग ढूँढ़ी होगी

    फिर इस सदी में ऐसा क्या हुआ कि

    हवा, पानी, आग और लोहा उससे छीन लिया गया

    माँ ने लिखा पानी!

    एक नदी

    उसके सामने भर गई

    एक नाव

    आकर तट से लग गई

    माँ ने लिखा लोहा!

    दरवाज़े पर लगे सभी साँकल खुल पड़े

    माँ ने लिखा आग!

    सभी औरतें आग लिए

    घर की देहरी को लाँघते चल पड़ी

    पहली बार मैंने आग को कविता में बदलते हुए देखा

    स्रोत :
    • रचनाकार : निवेदिता झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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