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पढ़ने में नहीं समझने में चूक हुई

paDhne mein nahin samajhne mein chook hui

दिव्या श्री

दिव्या श्री

पढ़ने में नहीं समझने में चूक हुई

दिव्या श्री

प्रेम में तृष्णा नहीं होती किसी को अपना बनाने की

ख़ुद को समर्पित कर देने की आकांक्षा भर होता है प्रेम

जिस तरह आत्मा समर्पित होती है शरीर को

देह को समर्पण का ज्ञान-विज्ञान नहीं आया

यहाँ सब अपने बेटे को कृष्ण बनाते हैं

मैं अपनी बेटियों को राधा बनाऊँगी

जऱा सोच कर ही देखा जाए

राधा बिन कृष्ण कहाँ!

रात के तीसरे पहर में जब बात होती है तुमसे

वियोगी होने का दुःख भी भूल जाती हूँ तब

सुनो, एक राज की बात कहती हूँ आज

मेरा आत्मिक प्रेमी तुझसे डाह रखता था!

माफ़ करना! मैं आज भी उससे पहले जितना ही प्रेम करती हूँ

जबकि वो प्रेम तो दूर मुझसे प्रतिस्पर्धा भी नहीं रखता

मेरे नयन उसे देखने को व्याकुल

तुझमें उसकी ही छवि तलाशते रहते हैं

तुम्हारी आँखें मेरे प्रेमी की-सी हैं

मेरा प्रेमी बेशक तुम्हारे जैसा था

प्रेम आज भी इस खंजर होती दुनिया की सबसे सुंदर लिपि है

मुझसे पढ़ने में नहीं समझने में ज़रा चूक हुई

माफ़ करना प्रेम के देव! मेरे प्रेमी की त्रुटियाँ

मेरे पवित्र प्रेम की थोड़ी-सी लाज रखना

और उसे सुख, चैन सब देना

नहीं देना तो बस मेरे जैसा प्रेम!

स्रोत :
  • रचनाकार : दिव्या श्री
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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