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पढ़ाई

paDhai

अनुवाद : रति सक्सेना

बालमणि अम्मा

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और अधिकबालमणि अम्मा

    डबडबाई आँखें मन में चिड़चिड़ाहट

    उँगलियों के पोरों में थरथराता पेन

    किताब खोली मुन्ने ने, लकीरों पर निगाह दौड़ाई

    सामने फैले पन्नों पर उकेरने लगा

    छोटे-छोटे विलक्षण लिपि अक्षर।

    बाँस के पिंजरे से पुकारती है मैना

    चेहरा उठ गया, पेन थम गया

    डगमगाते क़दम धरते दूर जाते विचार

    पुरानी कहानियों में, अनेक सपनों में

    जाने-पहचाने महलों में, सैनिक शिविरों में,

    पहाड़ी चोटियों में, बीच-बीच में बुदबुदाकर जाप करने लगता—

    “पढ़ाई तो समय की बर्बादी है

    क्या ख़ुद की लिखी पंक्तियाँ

    काले लंबे धागे-सी उसके पाँवों में लिपट

    उसे वापस लौटा रही थीं?

    डपटने-फटकारने को आई माँ

    यह सुन सोचने-विचारने लगी

    कैसे मानूँ अपने को उससे बड़ा

    बिन कुछ समझे-बूझे सूरज की

    सुनहरी किताबों को उलटती-पलटती हूँ

    लिखने के अभ्यास के बल पर

    ध्यान लगा काँपते हाथों से कुछ लिख देती हूँ।

    दूर उड़ चले सुख-

    जब पुकारते हैं तो-

    उतावली हो जा गिरती हैं मेरी

    निगाहें धन पाने के रास्तों पर

    लोगों की चापलूसी भरे कामों में,

    मँडराते फिरते हैं विचार

    मन को लुभाने वाले प्रतीक्षित वनों में,

    विमूढ़-सी मन ही मन गुनती हूँ

    “ज़िंदगी के सार को खोजना समय की बर्बादी ही तो है।

    जो कर्तव्य अब तक निबाहे वे जाल फेंक

    पाँवों को बाँध पीछे को घसीटने लगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नैवेद्य (निवेद्यम्) (पृष्ठ 164)
    • रचनाकार : बालमणि अम्मा
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1996

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