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ओहदेदारों की बिबियाँ

ohdedaron ki bibiyan

कलानाथ मिश्र

अन्य

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कलानाथ मिश्र

ओहदेदारों की बिबियाँ

कलानाथ मिश्र

और अधिककलानाथ मिश्र

    जन-धन से अर्जित, रक्षित, पोषित

    लाल पट्ट वाली चमचमाती गाड़ी में

    वर्दीधारी ड्राइवर और

    उधार के खाकीधारी अंगरक्षक की

    सुरक्षा में चलती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    चेहरे पर रोबदार चमक

    और महँगे कपड़ों पर

    भरकीली तीखी महक,

    परिवेश को आतंकित करती

    गाड़ी से उतरती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    उनको देखा

    चमचमाती, नोकीली सैंडल से

    पग-पग में पृथ्वी को रौंदती

    वसुधा को अपनी गुलाम समझती

    गर्वीले उन्नत मस्तक

    शानदार रंगीन चश्मे के भीतर

    आँखों में वैभव के नशे का

    सूरमा लगाए चलती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ

    कंधे पर मासूम जीव के

    मुलायम चमड़े का लुभावनी

    पर्स लटकाए

    नूमाईश करती चलती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    निरीक्षण की मुद्रा में चहुँओर

    परिवेश पर एक तिरछी दृष्टि दौड़ाती

    सामान्य जन के प्रति

    उपेक्षा भाव से दृष्टिपात करती हुई

    व्यवस्थाओं, मान्यताओं, परंपराओं

    का धत्ता बजाती हुई,

    मनोनकूल मान्यता बनाती हुई

    आगे क़दम बढती हैं,

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    कलाई में हीरा जटित

    स्वर्णाभ मोहक चमचमाती

    घड़ी में समय देखती

    चमचों, प्रसंशकों पर संतोष

    दृष्टि डालती,

    प्रशंसा सुनने की अशा में

    एक क्षण रुकती हैं,

    गले में लटके रत्नजटित

    आँखों को चुधियाने वाली

    अकूत संपत्ति का प्रदर्शन करती

    सोने की गहनो को

    बे-तकल्लुफ़ी से सहलाती

    चारण काव्य सुनती आगे बढती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    ओहदेदारों की ऊँची पहुँच

    शानो-शौकत, रोब-दाब देखकर

    अंग्रजों वाली सत्ता के

    दमन नीतिको याद कर

    अनिष्ट की आशंकाओं से आक्रांत,

    सहमी, सकुचाई आम जन

    उनकी प्रशंसा में कसीदे गढते हैं।

    ओहदेदारों की बीबियाँ

    इस सच से अनजान बने

    अपनी प्रशंसा से

    सुबह के फूल की तरह खिलती हैं,

    चाँदनी की तरह मुस्काती हैं,

    तारों की तरह इठलाती हैं,

    सम्पूर्ण समाज पर

    एक अदृश्य अधिपत्य जमाती हुई

    आगे बढती चली जाती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ

    ठीक उसीतरह जैसे

    1947 तक अंग्रेज़ मेम

    अपनी विलासिता के लिए

    भारत की जनता पर

    अधिपत्य जामाए,

    आमजन के अधिकारों का,

    उनके मान-सम्मान का

    मर्दन करती हुई चलती थीं।

    आज भी कुछ उसी अंदाज़ में

    रोब-दाब के साथ चलती हैं

    ओहदेदारों की बीबियाँ।

    जनतंत्र में जनता अब

    किससे स्वतंत्रता मांगेगी?

    स्रोत :
    • रचनाकार : कलानाथ मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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