महानगर : रात

mahangar ha raat

अज्ञेय

अज्ञेय

महानगर : रात

अज्ञेय

धीरे-धीरे-धीरे चली जाएँगी सभी मोटरें, बुझ जाएँगी

सभी बत्तियाँ, छा जाएगा एक तनाव-भरा सन्नाटा

जो उसको अपने भारी बूटों से रौंद-रौंद चलने वाले

वर्दीधारी का

प्यार नहीं, किंतु वांछित है।

तब जो इन पत्थर-पिटी पटरियों पर

अपने पैर पटकता और घिसटता

टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्

नामहीन आएगा—

तब जो ओट खड़ी खंबे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाए

थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती

लट की मैली झालर के पीछे से बोलेगी :

‘दया कीजिए, जैंटिलमैन...’

और लगेगा झूठा जिसके स्वर का दर्द

क्योंकि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,

तब जो होंठों पर निर्बुद्धि हँसी चिपकाए

मानो सीलन से विवर्ण दीवार पर लगा किसी पुराने

कौतुक-नाटक का फटियल-सा इश्तहार हो,

कुत्तों के कौतूहल के प्रति उदासीन

उसके प्रति भी जिसको तुमने सन्नाटे की रक्षा पर तैनात किया है,

धुआँ-भरी आँखों से अपनी परछाईं तक बिन पहचाने,

तन्मय—हाँ, सस्ती शराब में तन्मय—

चला जा रहा होगा धीरे-धीरे-धीरे—

बोलो, उसको देने को है

कोई उत्तर?

होगा?

होगा?

क्या? ये खेल-तमाशे, ये सिनेमाघर और थिएटर?

रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किए प्रचारित

द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?

यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,

ये कचरा-पेटियाँ सुघड़ (आह

कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)?

असंदिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं

और सभ्यता बहुत बड़ी सुविधा है सभ्य, तुम्हारे लिए!

किंतु क्या जाने ठोकर खाकर कहीं रुके वह,

आँख उठाकर ताके और अचानक तुमको ले पहचान—

अचानक पूछे धीरे-धीरे-धीरे

‘हाँ, पर मानव

तुम हो किसके लिए?’

स्रोत :
  • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 71)
  • संपादक : अशोक वाजपेयी
  • रचनाकार : अज्ञेय
  • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
  • संस्करण : 1997

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