नौकरी न होने के दिनों में

naukari na hone ke dinon mein

घनश्याम कुमार देवांश

घनश्याम कुमार देवांश

नौकरी न होने के दिनों में

घनश्याम कुमार देवांश

 

एक 

ऐसा भी होता है कि
कभी कभी अच्छा-ख़ासा आदमी भी ख़रगोश हो जाता है
जिसे लगता है कि 
दुनिया में उसके 
और शिकारियों के अलावा कोई 
तीसरी प्रकार की जीवित चीज़ नहीं पाई जाती 

यह बहुत आम बात है 
कि ऐसा आदमी हर बात पर शक करता है
इस बात पर भी जब उसकी प्रेमिका 
उसके गालों को चूमते हुए
बराबर कहती है कि वह अब भी 
उसे प्यार करती है

उसे अक्सर अपने ही घर का दरवाज़ा
बुरा मानता प्रतीत होता है
वह अक्सर खिड़कियों से भीतर 
बुदबुदाता है कि उसके और घर के बीच से 
दरवाज़ा हटा लिया जाए

वह माँ का मुँह ताकता रह जाता है 
जब माँ 
घर में सिर्फ़ उसी से पूछती है 
कि आज क्या खाने का मन है
जब पिता घर में प्राय: सोते हुए 
मिलते हैं और बहनें 
धूप में चोटियाँ सेंकती हुईं 

ख़रगोश हुआ आदमी 
नहाते समय बाल्टी के सामने 
शर्मिंदा होता है
कि वह आख़िर इतना क्यों डरता है
पार्क में आलिंगनबद्ध एक जोड़े से।

दो 

आजकल 
अकेले में पीनी पड़ती है चाय 
टिफ़िन खोलना पड़ता है 
बिना किसी आवाज़ के 
सफ़र पर निकलना होता है 
अकेले ही
प्रेमिका से बोलना पड़ता है 
झूठ कि बहुत व्यस्त हूँ
बुख़ार को थकान 
और बेकारी को मंदी कहना पड़ता है

रेज़गारी सँभालते हुए 
एक परिचित की निगाह को 
बतानी पड़ती है 
महानगर में उसकी अहमियत 
जबकि 
शादी और जन्मदिन की पार्टियाँ
वाहियात लगती हैं 
और अच्छे-ख़ासे दोस्त 
आवारागर्द 

कितना मुश्किल है आजकल 
विनम्र बने रहना 
और 
प्रकट करना उदारता 
नौकरी न होने के दिनों में।

स्रोत :
  • रचनाकार : घनश्याम कुमार देवांश
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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