पुर-असरार ढोल बजे मेरे अंदर
और उनकी लय पर
मछलियाँ नाचीं दरियाओं में
औरत मर्द नाचे ज़मीन पर
लेकिन दरख़्त की ओट में बड़ी हुई वह
कमर के गिर्द पत्तियों वाली वह
वह सिर्फ़ मुस्कुराई सर हिलाकर
मेरे ढोल बजते रहे झँझोड़ते हवा को अपनी तेज़ गति से
मुर्दों और ज़िंदों को
विवश करते हुए
लेकिन दरख़्त की ओट में खड़ी हुई वह
कमर के गिर्द पत्तियों वाली वह
वह सिर्फ़ मुस्कुराई सर हिलाकर
फिर ढोल बजे ज़मीनी चीज़ों की गति से
और जादू जगाया चश्मे-फ़लक,
सूरज, चाँद, नदी, देवता
और दरख़्तों ने रक़्स शुरू किया
मछलियाँ बन गईं आदमी
आदमी बन गए मछलियाँ
और चीज़ों ने बंद कर दिया पैदा होना
लेकिन दरख़्त की ओट में खड़ी वह
कमर के गिर्द पत्तियों वाली वह
वह सिर्फ़ मुस्कुराई सर हिलाकर
और फिर पुर-असरार ढोल
बंद हो गए बजना मेरे अंदर
आदमी आदमी बन गए
मछलियाँ, मछलियाँ
और पेड़ों ने चाँद, सूरज ने
पा लिए अपने-अपने मुक़ाम
और मुर्दे ज़मीन के अंदर चले गए
और चीज़ों ने उगना शुरू कर दिया
और फिर पेड़ की ओट में वह खड़ी
जड़ें फूटतीं उसके पैरों से और पत्तियाँ
उगतीं सर पर और नाक से ख़ारिज होता धुआँ
और उसके लब मुस्कुराने को खुलते ही
अँधेरा निगलते हुए ग़ार-से हो गए
तब मैंने अपने पुर-असरार ढोल समेटे और चल दिया
फिर कभी नहीं बजाने के लिए इस तरह।
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 202)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : गाब्रियल ओकारा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
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