मूर्ति गढ़ने के दिन

murti gaDhne ke din

कमलाकांत लेंका

कमलाकांत लेंका

मूर्ति गढ़ने के दिन

कमलाकांत लेंका

प्रतिदिन मेरी साँसों में

गौरैया जैसे

आती और चली जाती

झरोखे के छोर पर बैठती और

अगले क्षण अनबूझ गीत के

हुताशन की बाती

उकसाकर उड़ जाती

ऐसे में

समय-असमय

वक़्त-बेवक़्त

साँझ-सबेरे का स्थापत्य

घुल-मिल जाता

आंतरिकता के चीनी खिलौने-सा

अपनेपन की आकाशी बड़ाई-सा

और मेरी पारदर्शिता के

सुरक्षित इलाक़े में

नहीं होता मैं

तुम

किसी दूर वनराई की काकली-सी

मेरे अंदर व्यर्थ अनुगूँज भरती

चारों ओर स्वप्न अलसाकर

जम्हाई-सा केवल पहरा देता!

पल भर में काली स्याह रात में

सफ़ेद झक तगर फूल के

सहमे सिकुड़े ईर्ष्यालु चंपा

उठाकर देता क्रोध और स्नेह में

मैं संभ्रम की बाँह पकड़

खुल जाता निश्चल उत्तेजना में

तुम्हें अपनाने के लिए

ढेर सारे अपने विश्वासों को

ख़ूब धिक्कारने

खीझ का खजाना हाथ में था,

उदार समय के लिए

निरुपाय उर्वर उम्र के लिए

संभ्रांत अनुभव कोई

सहेजने के लिए देखो

मैं और मेरा वर्तमान बंदी

राग-रोष की गठरी में,

नाना फ़साद, षड्यंत्र और टीका-टिप्पणी की

बिजली की कौंध में!

बोलो :

किस ज़ोर पर तुम्हारे सामने

देवल गढ़ दूँगा

पहाड़-सा खड़ा कर दूँगा

अपनी स्वाति की अधमता,

मेरी पवित्र निराभरण मूढ़ता का

इंद्र भवन!

प्रतिदिन मेरी साँसों में आती और जाती हो

आलापहीन सूर्योदय के उत्सव में,

जाने-अनजाने

संदेही स्मृति और साँझ की

आँखों के इशारों में

मेरी जिद्द और रोने-धोने को

धन खेत की लहराती हवा को

मवाद भरे घाव को नोंचती मक्खियों के

आल्हाद-सा

मैं सड़ता। धूप मुरझा जाती।

बाढ़ उतरने के दृश्य में

विधवा-सी

आंतरिकता के स्वर में

तपाए सोने की

प्रतिमा-सा

फूलों को बुलाते

आकाशी-ओट-को

जो मेरे रत्नगर्भ दुःख के

चमकदार भविष्य का हास्यकर परिधान,

जो मेरे झूठमूठ के गालीगलौज,

जलने-भुनने और छटपटाने का

सबसे मधुर गुंजरण!

तुम्हारे आने और लौटने के बीच

आग के लुआठे-सा

जलता हूँ मैं

सब पाने-खाने के बीच के

अवस्था चक्र में

टटोलता तुम्हें

तुम्हारे अनन्य प्रस्थान में

स्मरण-विस्मरण के

सीधे-सादे निसर्ग सौंदर्य में

रोज़ाना

आरंभ में इति होती

तुम्हारी अधीर भेंट में ही

अक्षम और क्षीण पल को

दे जाते अनबाहुड़ा,

अधलिखी

छवि को जीवन्यास;

वही मेरी सार्थकता के होंठ से चुराती

दुपहर की प्रतिम हँसी,

मेरे मौन के रक्त्त में तुम

तैरते युग-युग के

जिद्दी असंतोष!

जब कि तुम्हारा आना और जाना

चिरंतन! जब कि पल-पल को गाँठ बाँध

मादल मूर्ति गढ़ता मैं

वर्ष, माह, दिन—हर पल।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 135)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : कमलाकांत लेंका
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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