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मुझे जिलाए रखने वाले का पता

mujhe jilaye rakhne wale ka pata

गार्गी मिश्र

गार्गी मिश्र

मुझे जिलाए रखने वाले का पता

गार्गी मिश्र

मैं किसी अज्ञात दृश्य को जाने वाली रेल में सवार हूँ

और टिकट पर ढाक के फूल खिले हैं

झर रहे हैं मेरी श्वास की आँच में किंशुक

पीछे छूटता दिखाई दे रहा है वह क़बीला

जहाँ मेरी गुमशुदगी की ख़बर आम हुई है

मुझे कुछ याद नहीं सिवाय इसके कि बीती रात

एक जन्मोत्सव से आने के बाद मैंने उतार दिए थे वस्त्र

मेरे सीने के दाईं ओर जन्मा था एक अर्द्ध-चंद्रमा

और आकाश हो गई थी मेरी छाती

घुप्प अँधेरा है और चंद्रमा अपनी चाँदनी ओढ़े

बढ़ रहा है इस पथ पर मेरे साथ

नींद में चलती कोई दुल्हन मेरे पाँव के अँगूठे से टकरा जाती है

करने को उसका पथ उजियारा मैं थोड़ा-सा चंद्रमा उलीच देती हूँ

गड़ा देता है कलानिधि अपने नूह मेरी छाती पर

उसे भय है कि वह पूरा बह जाए

रुक गई है रेल और चाय की पोटली को गर्म पानी में डुबोता एक नौजवान

सवेरा हो चुकने की ग़लतफ़हमी में ख़ुश है

सहयात्रियों की अपरिचित भाषा को सुनते

और चाय के प्यालों को होंठों से लगाते

मैं दूर से अपने होंठों को देखती हूँ

मेरे होंठों के नज़दीक एक जन्मचिह्न है

वह इसे अपना घर कहता है फिर वहीं डूब जाता है

जबकि मुझे मालूम है कि एक जन्म के पूरा होने पर

पहुँचेगी यह रेल अपने गंतव्य पर

फिर भी जाने क्यूँ अधखुले अधरों और मुँदी पलकों के साथ

मैं किसी अज्ञात दृश्य को जाने वाली रेल में सवार हूँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : गार्गी मिश्र
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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