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मुझे भी अपने साथ जीने का अधिकार दो

mujhe bhi apne sath jine ka adhikar do

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

वीरभद्र कार्कीढोली

मुझे भी अपने साथ जीने का अधिकार दो

वीरभद्र कार्कीढोली

ठीक है,

तुम सुंदर फूल जहाँ भी खिलो

तुम्हारा अपना वसंत है, पर

मुझे भी अपनी ज़िंदगी के किसी कोने में

काँटे की तरह उगने दो सिर्फ़

मैं इतने में ही ख़ुश रह सकूँगा—ख़ुश।

ठीक है,

तुम मूल सड़क जहाँ जिधर भी जाओ,

तुम्हारा लक्ष्य तुम्हारे ही साथ है, पर

मुझे भी तुम्हारी ज़िंदगी के एक किनारे में

धुप्पी पेड़ की तरह खड़ा होने दो सिर्फ़

मुझे स्वीकार है।

ठीक है,

तुम अपनी इच्छानुसार की नीरव 'रात' हो

तुम्हारा उद्देश्य तुम्हारे ही साथ है, पर

अपनी रात के अंदर ही

मुझे जुगनू बनने दो सिर्फ़

मुझे मंज़ूर है, मंज़ूर।

ऐसा नहीं कि तुम्हें मालूम हो

रात-दिन दौड़ती रहती है—

समस्याएँ....

दुःख, पीड़ाएँ...!!

असहनीय बनकर छाती में / हृदय में

वास्तव में मैं चाहता हूँ—वह सब

तुम्हारे साथ हो।

मुझे पता है :

हर बरसात में उछलकर

मुझे गिराने की कोशिश भी रही तुम्हारी

तुम्हें भी पता है / जहाँ तक

मैं विचलित होकर ढहने की अवस्था में

भी पहुँचा था।

पर उन सभी स्थितियों से

मैं दुखित नहीं हूँ

ही कभी हुआ, नहीं!

ठीक है,

तुम गंगा, पवित्र, विशाल

बहो, बहती रहो, जैसे भी / जहाँ भी

तुम्हारी गति तुम्हारे साथ ही है, पर

मुझे भी अपने साथ

सेतु बनकर जीने का अधिकार दो

सिर्फ़ सेतु बनकर—बस, सेतु बनकर...!

स्रोत :
  • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 82)
  • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2016

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