मीना

mina

यशवंत कुमार

माँ जब काफ़ी बूढ़ी हो गई थीं

तब ज़ेवर के नाम पर

उनके पास केवल

दो मीने शेष रह गए थे

वह जब भी हमारे चेहरे पर

ज़रा भी शिकन देखतीं

तब कहतीं—

‘जा बेच दs एके…’

बड़ी अम्मा कहती थीं कि

ये मीने माँ की शादी में

उनके नैहर से मिले थे

और काफ़ी भारी थे

माँ को लगता था—

इन मीनों को बेचकर

दुनिया की कोई भी समस्या

हल की जा सकती है

माँ हमारे लिए

अपनी हर एक चीज़ बेच देने को

आतुर रहती थीं

वह भले ही उन्हें

बेहद प्यारी क्यों हो

माँ ऐसी जौहरी थीं

जिन्हें लाभ नहीं कमाना था

माँ ने पहली बार जब

पिता को क़र्ज़ में फँसे देखा

तो बिना किसी ज़िरह के

अपनी अँगूठी दे दी

दूसरी बार रेहन पर रखे खेत छुड़ाने के लिए

उन्होने अपना कर्णफूल बेचा था

ऐसे कितने ही मौक़े आए और आते रहे

एक बार दीदी के इलाज के लिए

उन्होंने अपना कंगन बेचा और

बुआ की बीमारी में अपनी हँसुली

इस तरह वह धीरे-धीरे

ख़ाली होती गई

और अब उनके पास

केवल पैर के यही दो मीने

बचे रह गए थे

और उन्हें भी वह

दे देना चाहती थीं

हमारे हर दु:ख के बदले

उनके पास कोई कोई आभूषण था

वह दु:ख का मूल्य समझती थीं

फिर एक दिन आया

जब उन्हें लगा कि

अब वह ज़्यादा दिन नहीं रहेंगी

वह कराह रही थीं

और लोगों से माफ़ी माँग रही थीं

ठीक उसी वक़्त

हम माँ के विछोह के बारे में कम

और उनके दाह-संस्कार के

ख़र्च के जुगाड़ के बारे में

ज़्यादा सोच रहे थे

माँ ने अपने अंतिम समय की

घोर व्यस्तता के बीच

चुपके से हमारा चेहरा देखा होगा

और मन ही मन हँसी होंगी

वह दु:ख की पुरानी साथिन थीं

उनके पास सामर्थ्य नहीं था

लेकिन वह उठीं

और लेटे-लेटे ही किसी तरह

अपने पैरों तक झुकीं

और अपने दोनों मीने निकालकर

हमारे हाथों में रख दिए और बोलीं—

‘जा बेच दs एके…’

स्रोत :
  • रचनाकार : यशवंत कुमार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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