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मेरी इच्छा

meri ichchha

दलपत चौहान

अन्य

अन्य

दलपत चौहान

मेरी इच्छा

दलपत चौहान

और अधिकदलपत चौहान

    तुम्हारी तरह मेरी भी

    कितनी ही इच्छाएँ हैं।

    तालाब की पाल पर

    चित्त लेटे-लेटे

    मैं सूरज को देखना चाहता हूँ

    डालियों के कोलाहल के साथ

    उठना चाहता हूँ

    भले ही चुँधिया जाएँ आँखें

    तेज़ प्रकाश से,

    कल तक जो सूर्य

    मेरी पीठ को भिगोता था

    आज भले ही मेरे चेहरे को भिगो दे,

    मैं धूल भरे रास्तों को

    अपने पैरों तले रौंदना चाहता हूँ

    भले ही पैरों में छाले पड़ जाएँ,

    मैं अनंत तक विस्तार पाना चाहता हूँ,

    मैं चीख़-चीख़कर कहना चाहता हूँ

    मैं मनुष्य हूँ—मैं मनुष्य हूँ

    भले ही मेरे गले में चीरे पड़ जाएँ

    तुम्हारे बारे में भ्रम से

    अनजान नहीं हूँ मैं

    हक़ीक़त में तुम्हे मिले हुए सारे वरदान

    खूँटी पर टँगे हुए कोरे सत्य जैसे ही हैं

    मुझे यह भी पता चल गया है कि

    सत्य के कोई सींग नहीं होते

    मैं समझ गया हूँ कि

    आज जो सच है

    वह कल भी सच हो ज़रूरी नहीं

    यही क्रम है

    इसीलिए मैं इस क्रम को

    गति देना चाहता हूँ

    हाँ इसीलिए तो

    मेरी कितनी ही इच्छाएँ हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुजराती दलित कविता (पृष्ठ 60)
    • संपादक : अनुवाद एवं संपादन : मालिनी गौतम
    • रचनाकार : दलपत चौहान
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2022

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