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मेरी दादी

meri dadi

दीप्ति कुशवाह

अन्य

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दीप्ति कुशवाह

मेरी दादी

दीप्ति कुशवाह

और अधिकदीप्ति कुशवाह

    बयासी बरस की उमर में

    मेरी दादी जब मरी

    तो उसकी तिजोरी से

    सही मायनों में कुछ भी निकला

    तिजोरी, जो दरअसल

    पानपराग का एक पुराना जंगखाया डब्बा थी 

    उसमें से निकले

    कन्ना-गोटी खेल के पाँसे

    जिनसे अभी भी रही थी

    गोबर और मिट्टी की मिली-जुली गंध

    टूटी मालाओं के गुरिया

    और उनसे लिपटे क़िस्से

    जाने किस साध में सहेजे गए

    बदरंग बेमेल बटन

    जंग खाईं आलपिनें

    उसमें थीं

    अनजान चेहरों वाली मुड़ी-तुड़ी तस्वीरें

    लौकी कद्दू के बीज

    जिन्हें शायद उसने

    अगले मौसम के लिए रख छोड़ा था

    निकले

    कुछ, चलन से बाहर हो चुके 

    और कुछ, चलन वाले सिक्के

    जो सिर्फ़ ‘कुछ नहीं’ ख़रीदने के

    काम सकते थे

    तो क्या सचमुच दादी ने

    हमारे लिए कुछ नहीं छोड़ा था?

    मेरी दादी ने छोड़ी थी वह मिसाल,

    कि छोटी उमर में पति को खोने के बाद

    दो हाथों के बलबूते

    कैसे बोए जाते हैं क्षमताओं के बीज

    कैसे उगाई जाती है सपनों की फसल

    जिनसे मिलते हैं

    आशाओं के फल पीढ़ियों तक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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