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दफ़न काया

dafan kaya

फेदेरीको गार्सिया लोर्का

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और अधिकफेदेरीको गार्सिया लोर्का

    क़ब्र का पत्थर वह माथा है—जहाँ

    स्तब्ध खडे साइप्रस और सहमी हुई

    नदियों से कतराते हुए

    समस्त दुखी सपने—अपना-अपना

    माथा फोड़ने आते हैं।

    क़ब्र का पत्थर एक कंधा है

    आँसुओं, फीते से बँधी पुष्पांजलियों

    और नक्षत्रों के भार से लदे

    समय का भार ढोने के लिए।

    अपनी कोमल प्रश्नाकुल बाँहें उठाए

    मैंने उदास बूँदों को देखा है

    लहरों की तरफ़ जाते, क़ब्र के पत्थर से कतराते

    —ख़ून को सोखे बिना, खोल देता है

    जो अपने सारे अवयव।

    क़ब्र का पत्थर बटोरता है बीज और बादल

    अस्थिपंजर उठता है अलस्सुबह राहत की खोज में

    प्रेतछायाओं के सियार जब भूँकते हैं।

    मगर कहीं कोई स्वीकार नहीं, पुकार नहीं

    स्फटिक-सी आग नहीं

    केवल सॉंडयुद्ध के अखाड़े-अखाड़े और अखाड़े

    जिनकी कोई चारदीवार नहीं।

    सब कुछ—सभी कुछ ख़त्म

    केवल बारिश उसका चेहरा टटोलती हुई

    बदहवास पागल हवा

    उसकी भयावह छाती से दूर भागती हुई

    और उसका प्यार—

    उसके आँसुओं के ठंडेपन से दूर भागता हुआ

    सेंकता हुआ अपने आपको, ज़िंदा साँडों के बाड़े में

    उनका क्या कहना है? एक बदबूदार ख़ामोशी का

    यह अंत है।

    यहाँ हमें इस क़ब्र में

    एक समूची देह के ग़ायब होने का इंतज़ार है

    एक ऐसी संपूर्ण देह—जिसमें कोयलें वास करती थी।

    अब वहाँ उस देह में अनन्त गहे हैं

    जो किसी भी तरह भरे नहीं जा सकते।

    उसका चोला किसने खींचा? उसे क्यों नहीं लगता यह सब सच?

    यहाँ खुल कर कोई नहीं गाता—कोने में जाकर कोई नहीं रोता

    कोई नहीं छिड़कता पवित्र जल—किसी को साँप से डर नहीं लगता

    यहाँ मुझे कुछ और नहीं—बस वे दो आँखें चाहिए

    मेरी अशांत काया को निहारती एकटक।

    यहाँ मुझे सख़्तजान आदमी चाहिए

    जो—घोड़ों को—नदियों को कर लेते हैं अपने वशीभूत

    कंकाल बने जो आभा और सुगंधियाँ बिखेरते फिरते हैं।

    यहाँ मैं देखना चाहता हैं उन्हें। क़ब्र-पत्थर के सामने

    इस क्षत-विक्षत काया के सामने

    मैं उनसे इस मृत्यु से बाहर निकलने की

    तरक़ीब जानना चाहता हूँ।

    मैं चाहता हूँ उन्हें जो शोक में नदी की तरह बहें

    जिनके किनारे गहरे और उन पर मीठी धुंध छाई हो।

    इग्नासियो के शरीर को जो ले जा सके दूर—

    साँड के खुरों के शोर भरे आतंक से दूर—

    जहाँ उसका वास्तव है।

    चाँद के गोलाकार अखाड़े में

    सामना को किसी और कलपते सांड से

    उस रात—जब मछलियाँ गाने से मना करती हों

    जमी हुई धुंध की धवल निस्तब्धता में।

    मैं नहीं चाहता कि वे उसका मुख ढाँप दें

    रूमाल से—ताकि वह अपनी मृत्यु का

    सहज संवाहक बन सके।

    जाओ—इग्नासियो, गर्म हवाओं से बेख़बर।

    नींद, मक्खी, आराम—

    अंततः समुद्र भी सो जाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 410)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : फेदेरीको गार्सिया लोर्का
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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