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मनुष्य के पैर

manushya ke pair

अनुवाद : गगन गिल

हरभजन सिंह

अन्य

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हरभजन सिंह

मनुष्य के पैर

हरभजन सिंह

और अधिकहरभजन सिंह

    जब मक्का से वापस रहा था

    तो मन हुआ

    मनुष्य के पैर चूमूँ

    जब मक्का से वापस रहा था

    मस्तक में एक दीया जलता था

    जो सारा रास्ता मुझे

    रोशनी की कहानी कहता रहा

    बहुत मुश्किल, बहुत आसान था रेगिस्तान का रास्ता

    बहुत बड़ी थी मनुष्य के पैर की अज़मत

    सिर पर दहकता था सूरज दुपहर का

    हरेक हाजी के सिर पर शोभा देती थी कलगी

    जैसे फाँक सूरज की उतरकर आई हो ज़ियारत के लिए

    रोशनी का काफ़िला था

    और उसके साथ चलता जा रहा था... रब्बुलआलमीन

    अभी-अभी क़ैद से रिहाई मिलने के बाद

    उसने सहज ही कहा मेरे कान में :

    मैंने पहली बार मनुष्य के पैर में पैग़म्बरी की शान देखी है

    मनुष्य के पैर ने पहली बार मेरे दिल की बात की है

    मेरा पैग़ाम नानक ने

    जो पैरों की ज़ुबानी कल सुनाया था

    किसी भी और भाषा में सुनाया जा नहीं सकता

    पैरों की आयत लाफ़ानी है

    मैं अपने घर में बौना हो गया था

    अब का'बे के कद से ऊँचा हूँ

    मैं रस्मी अदब में सिकुड़ गया था

    बेअदबी ने मुझे आज़ाद किया है

    मैं अब फिर दो आलम से ऊँचा हो गया हूँ

    और मन होता है मेरे भी पैर हों

    मनुष्य की तरह हर आलम में घूमूँ

    जब मक्का से वापस रहा था

    तो मन हुआ मनुष्य के पैर चूमूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जंगल में झील जागती (पृष्ठ 60)
    • संपादक : गगन गिल
    • रचनाकार : हरिभजन सिंह
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
    • संस्करण : 1989

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