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मकड़ी

makDi

अनुवाद : रामकृष्ण मूर्ति

गुर्रम जाषुवा

अन्य

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और अधिकगुर्रम जाषुवा

    एक

    तुझमें तो सूत कातने का कोई यंत्र या चर्खा नहीं

    ऐसी शक्ति कुछ सर्वेश की लीन हो तेरे गर्भ ही है।

    कौशेय वस्त्र सूक्ष्म सूत्र ये बना रही कैसे विचित्र!

    री मकड़ी! छली कहकर तुझे करता यह जग सारा दूषित।

    दो

    ढाके की मलमल जो बुनते क्या वे ही थे शिक्षक तेरे!

    नहीं दीखता आज एक भी शायद छिपे हों गर्भ तेरे!

    तुझसे बढ़ कोई अब कुशल असमान तेरा कला कौशल

    आश्रय बुरी वृत्ति का लेकर हाय! हो रहा व्यर्थ निष्फल।

    तीन

    शायद कीड़ों के समूह को पकड़ मारने को ही ठगकर

    जाली करघों पर कौशल से झीने-झीने वस्त्र बनाकर

    निज घर के भीतर फैलाकर सूखने, ताक में बैठी है

    मक्कार! जगत कहे क्यों नहीं तू मकड़ी नहीं, चोर ही है।

    चार

    पूर्ण चंद्रिका से जो बढ़ी तेरे सूत्र की साज सुंदर

    हैं गँवाते अपने प्राण ही जीवधारी देखने आकर

    यह बुनावट ख़ून चूसने की नीच! कहीं दीखती भी नहीं

    मानता हूँ पेट भरना ही तव पुत्र पत्नी परिवार है।

    पाँच

    गिरि पर तेरे बुने जाल की आड़ में छिपा रहा सिकुड़कर

    हार गया वीर बड़ा कोई, शत्रुजन तो आकर कहीं पर

    जाल देख विश्वस्त हुए सब तब गेह में झाँका तक नहीं

    यह देख प्रशंसा कर तेरी प्रभु का आँक लूँ वैदुष्य ही।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक तेलुगु कविता (प्रथम भाग)
    • संपादक : चावलि सूर्यनारायण मूर्ति
    • रचनाकार : गुर्रम जाषुवा
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 1969

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