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मैं रोती क्यों नहीं?

main roti kyon nahin?

शिवांगी सौम्या

शिवांगी सौम्या

मैं रोती क्यों नहीं?

शिवांगी सौम्या

(उमाशंकर चौधरी की कविता से प्रेरित!)

(एक)

पिता के गुज़रने के बाद

रह गए उनके सामान

समान के साथ रह गए

पिता के गुज़रने के बाद

रह गए उनके ढेर सारे पहचान पत्र

उनका आधार कार्ड

बैंक का पास बुक

और वोटर आईडी कार्ड

जो उनके जाने के बाद रह गए उनके रहने के सबूत

वो कभी हुआ करते थे।

(दो)

जब वो थे तो इन पहचान पत्रों के साथ था

उनका शरीर

और उनकी आवाज़

उनके होने का सबूत।

जब वो गुज़र गए थे

तो चला गया उनका शरीर और आवाज़

पहचान पत्रों के साथ

बाकी के उनके कपड़े जल गए थे उस आग में

जिसमें स्वाहा हुई थीं उनकी लाश

बाकी दान में चला गया।

(तीन)

पापा थे

लोग कहते थे

मैं भी उनके होने के वक्त उनको देखती थी

सुनती थी उनको

लेकिन मुझे वो दिखते थे

ना ही सुनाई देते थे।

उनके शरीर में चल रहा होता कोई और

उनकी आवाज़ में बोल रहा होता कोई और

मैं उसको उनसे निकाल के बाहर फेंक देना चाहती

लेकिन दुनिया में कोई हाथ ऐसा नहीं था

जो ये काम कर सकता था।

मैं अपने हाथ को घूरती

और घूरती मंदिर में पड़ी मूर्तियों के हाथ को

कोई हाथ नहीं था।

(चार)

मुझे याद है

मैं मना लेती थी हर त्योहार

हर उपवास को कर लेती

खाती नहीं नौ दिन नमक

और निराजल देखती थी सूरज और तारे और फिर सूरज।

भूखे रहने से

खुल जाएगा कोई द्वार

जिससे पापा निकलेंगे

हो जाएँगे अपने शरीर में शरीर

अपनी आवाज़ में आवाज़।

(पाँच)

फिर घूमने लगे डॉक्टर के पास

गोली पे गोली

उजली गोली

नीली गोली

हरी गोली

पीली गोली

मैं बदल के फाहों के जैसे चूर करती उन्हें

माँ मिलाती उसे गिलास में पड़े अपने नीर में

या सूरज जिसे पकाती आँच पर बनाती घोल

और पिला देती

उस शरीर में रहने वाले मुँह को

कि एक ऐसा करवा अजीब-सा स्वाद निकले

जिससे चिढ़कर पापा अपनी आवाज़ में बोलें

लेकिन वो शरीर बोलता था उनकी आवाज़ में।

मैं चली जाती बिना चाँद वाले आकाश के नीचे वाली छत पर

और सुनती थी हवा में डोल रहे अरहूल के पत्तों का संगीत।

नीचे पिता का शरीर उनकी आवाज़ में बोल रहा था दुनिया का हर सुंदर शब्द

और कुछ का तो आविष्कार भी कर रहा होता।

(छह)

फिर एक दिन

निराजल को धकेल दिया मेरे मन के घर से

और निकाल दिया उपवास को।

भगवान उस दिन मूर्ति हो गए

उनके हाथ पत्थर।

और फेंक दिया

सारी रंग-बिरंगी गोलियाँ

बदल के फाहों के पास।

उस दिन बारिश हुई

इंद्रधनुष निकला

जिसमें सारे रंग थे फूट पड़े फिर।

उस दिन समझ गई थे

जब बाढ़ आया था

उस दिन पापा को लेकर चला गया था

छोड़ गया था उनका शरीर

और उनकी आवाज़

जिसमें कोई और रहा था।

(सात)

पिता तो बाढ़ के वक्त गुज़रे थे

आज तो बस उनका शरीर गया है

उनकी आवाज़ को लेकर।

और लोग कह रहे थे

मैं रो क्यों नहीं रही थी।

स्रोत :
  • रचनाकार : शिवांगी सौम्या
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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