मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

main kuch nahin chhipaunga

पंकज सिंह

पंकज सिंह

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

पंकज सिंह

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

बड़ी चीज़ है साफ़ ज़िंदगी बड़ी चीज़ है साफ़गोई

आतंक की आँखों में आँखें डाल सादगी से कहना अपनी बात

फ़रमाइश पर नाचते-गाते विदूषकों की

आत्मतुष्ट भीड़ में प्रचंड कोलाहल में

विदा लेती शताब्दी की विचित्र प्रतियोगिताओं में

बिना घबड़ाए हुए

सजल स्मृतियों से अभिषिक्त मस्तक को ऊँचा उठाए

सहज गति से चलता हुआ मैं जाऊँगा

पाप और अपराध के स्मारकों को पीछे छोड़ता

एक थरथराते हुए

आकार लेते स्वप्न में शामिल होने

जिसे प्रकट होना है हारती मनुष्यता के पक्ष में

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

अपनी अव्यावहारिक इच्छाएँ, आँसू

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

छिपाते हैं षड्यंत्रकारी छिपाते हैं चोर

छिपाते हैं लालची और क्रूर शासक, उनके कारकुन

ईर्ष्या और प्रतिशोध के ज़हर में उफनते लोग

पतझर में बादामी होती घास और जंगली फूलों की

बेपनाह महक से भरी हवा में

परछाइयों की हिलती थिगलियों भरी धूप में

ज़िंदगी और मौत की आवाजाही के पार

मैं करूँगा प्यार

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

प्यार करता हूँ करता रहूँगा भरपूर

अपने साथियों से जो हर चीज़ का अर्थ बन उपस्थित रहे हैं

बरसों से मेरे बेतरतीब सफ़र में

अपनी स्त्री से, वर्णमाला में प्रवेश करते बच्चों से

मैं प्यार करूँगा और अपने लोगों को अंधकार के बारे में बताऊँगा

मैं उनको अपने ज़ख़्म दिखाऊँगा

हमलावरों के बारे में बताऊँगा

मैं उन्हें कुछ फ़ायदेमंद हिदायतें दूँगा

अधिकार नष्ट किए जा रहे हैं

छीनी जा रही हैं स्वाधीनताएँ

संसद में सत्तावाले और प्रतिपक्ष मिलकर हँसते हैं डरावनी हँसी

चुपचाप अपना काम करने में भी

बढ़ती जा रही हैं दुश्वारियाँ

अभूतपूर्व संकटों के इस दौर में विजयी हैं भ्रांतियाँ

ऐसा बार-बार कहे जाने के बावजूद

मैं बताऊँगा इन दिनों सहमे हुए स्वप्नों के बारे में

मैं बताऊँगा

पाशविकता के आगे अच्छाइयाँ कितनी कमज़ोर

हुई हैं पिछले दिनों अनेक बार

चारों तरफ़ बिखरी हैं इसकी मिसालें

अख़बारों में हर सुबह कितनी ख़बरें

नैतिकता और नेकी के मुँह पर थूकतीं

कितने अकल्पनीय कितने जघन्य हैं

मनुष्यों के साथ कुछ मनुष्यों के कृत्य

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

अपमान

आरे सरीखे फाड़ते दुखों की कथाएँ

पश्चाताप

अपने इरादे जो ख़ासे ख़तरनाक हैं

बड़े सौदागरों, राजनेताओं, और शोहदों की

नशे में डूबी सतरंगी रातों के धुएँ और राल में

लगातार झरती राख और अजनबी संगीत के ज़हर में

ताम्बई अँग्रेज़ी झागदार फ़्रांसीसी के मायालोक में

सारी उम्मीदों के सिमट जाने के बावजूद

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा

सफ़ेद को नहीं कहूँगा स्याह

सही-सही नामों से ज़िक्र करूँगा चीज़ों का

हृदय में बचाए रखूँगा प्रकाशित जल से भरी नदियाँ सदानीरा

उन आकारों और रंगों को दुहराऊँगा आत्मीय तटों पर

जिनके स्पर्श से संपन्न हैं मेरे हाथ

मैं असंख्य सुबहों और दिन-रातों के वृत्तांत कहूँगा

सिर्फ़ अन्याय की कथा और पीड़ा में नष्ट ज़िंदगियों के बारे में नहीं

मैं मुक्ति की रणनीति और बाहर-भीतर के विराट संग्राम के बारे में बताऊँगा

मैं कुछ नहीं छिपाऊँगा।

स्रोत :
  • रचनाकार : पंकज सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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