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मैं दुखी नहीं हूँ

main dukhi nahin hoon

कर्मदेव पाठक

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कर्मदेव पाठक

मैं दुखी नहीं हूँ

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    मैं दुखी नहीं हूँ!

    मैं तो बस बैठे-बैठे

    मन ही मन कुछ

    गोंचता मिटाता रहता हूँ।

    कभी तुम्हारी दंतुरित मुस्कान

    तो कभी तुम्हारे चेहरे की चमकान

    सोचता रहता हूँ कि कैसे होगी?

    पहले की भांति उज्जवल या कुछ बदली-बदली!

    मैं दुखी नहीं हूँ

    मैं तो बस बैठे-बैठे।

    देखता रहता हूँ

    गंगा की अविरल जल धार को

    सूर्य का प्रतिबिंब लिए

    तुम्हारे जितना शीतल

    शांत कुछ क्षण को

    तो छिन भर में उफान,

    तुम्हारी बातों की भाँति बिल्कुल!

    मैं दुखी नहीं हूँ,

    मैं तो बस बैठे-बैठे।

    गंगा की लहरों की उथल-पुथल में

    सुन लेता हूँ,

    तुम्हारे मुझे पुकारने का स्वर जाने कैसे?

    हृदय करता है

    कि विलीन हो जाऊँ

    उन्हीं लहरों के क्रोंण में

    तुम्हारे स्वर के पीछे भागते।

    मैं दुखी नहीं हूँ

    मैं तो बस बैठे-बैठे।

    महसूस करता रहता हूँ

    तुमको,

    लहरा कर टूटती पत्तियों के स्पर्श से

    जैसे तुम्हारा झुमका इठला रहा हो

    और शाखाओं का ज़ोर से लहराना

    मानो तुम्हारा दुपट्टा मुझे

    लपेट लेना चाह रहा हो

    पहले की ही भाँति।

    मैं दुखी नहीं हूँ

    मैं तो बस बैठे-बैठे।

    रूठ जाता हूँ

    स्वयं से ही प्रश्न करता हूँ

    कि कहाँ भूल आया हूँ स्वयं को?

    प्रतिउत्तर में हवा का झोंका

    तुम्हारी सुगंध लिए

    झिंझोर जाता है अंतर्मन को!

    आँखें मुंद जाती हैं

    स्वयं से ही

    और तुम दीख पड़ती हो उस पार

    झुमके और दुपट्टे में

    शाँत-सी,

    टकटकी लगाए

    कदाचित प्रतीक्षा में मेरी।

    और मैं,

    भागता तुम्हारे स्वर के पीछे जाने कहाँ!

    मैं दुखी नहीं हूँ,

    सच!

    मैं तो बस बैठे-बैठे।

    मन ही मन कुछ

    गोंचता-मिटाता रहता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कर्मदेव पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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