मग्दलन मरियम

magdlan mariyam

वल्लत्तोल

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मग्दलन मरियम

वल्लत्तोल

1. वसंत की रात ने जब अपने चाँदरूपी थाल से शुभ्र शीतल अंगरागरूपी चाँदनी नेयिन नगर पर फैला दी तो वह श्री-संपन्न गलील प्रांत के कंठ में मुक्तामाला के समान शोभित हो उठा।

3. साइमन के सुरम्य प्रासाद के एक नेत्राभिराम एवं विशाल कक्ष में जगह-जगह पर सुगंधपूर्ण तेल के दीपक चाँदी की ज़ंजीरों से लटक रहे थे। सहसा एक पुरुषरूपी तेज़-पुंज उपस्थित हुआ और उसके आते ही वहाँ की सारी दीपों की दीप्ति मंद पड़ गई।

3. हे गृहस्थ! तुम धन्य हुए। इस लोक में इससे महान् अतिथि और कौन है? परंतु हाय! यह प्रमाद कैसा? उसके आगे तुम्हारे घुटने तनिक भी झुके।

4 जगत् में सर्व-सम्पत्ति-वितरण करने वाले इन दिव्य करों का चुंबन करने के लिए, हे दो कौड़ी के उन्मादी! क्या तुम्हारा अभागा सिर नहीं झुकेगा?

5. सुगंधमय गुलाब-जल से प्रक्षालन करने योग्य इन श्रीचरणों के लिए इस घर में साधारण जल भी उपलब्ध नहीं हुआ। सही, ये चरण तो स्वयं ही पुण्यतीर्थ हैं।

6. “भोजन तैयार है”—इस एक-मात्र वाक्य से स्वागत करना ही साइमन ने पर्याप्त समझा।

7. उस धनाढ्य यहूदी के निमंत्रण पर प्रभु ईसा वहाँ पधारे थे। पदत्राणरूपी पल्लवों से निकलकर खिले हुए पाद-पद्मों से धीरे-धीरे चलकर वे नृपोचित आडंबरों से परिपूर्ण एक सुंदर कक्ष में पहुँचे। वहाँ वे अपने मित्रों के साथ चित्र-वर्णोज्ज्वल रेशमी आसन पर भोजन के लिए विराजमान हुए। उस समय वे ऐसे लगते थे, मानो चम्पक, अशोक, कुन्द आदि की पुष्प-राशियों से मंडित वृंदावन की वनभूमि पर श्रीगोविंद ग्वाल-बालों के साथ बैठे हों।

8. घुटनों को मोड़कर, कंधे को तिरछा करके, बायाँ हाथ आसन पर टेककर, बाईं ओर झुके हुए, वे नित्यतृप्त, लीला-पुरुष महाप्रभु ईसा भोजन के लिए बैठे।

9. साधारण जल को द्राक्षारस बना देने वाले भगवान् के सामने साधु पाचकगण गृह-स्वामी की सम्पत्ति-समृद्धि को व्यक्त करने वाले बहुमूल्य पात्रों में एक-एक करके सुस्वादु भोजन परोसने लगे।

10. जिस ‘ताबोर’ पर्वत पर इस कन्या-पुत्र ने चालीस दिन तक निराहार आनंदलीन और ध्यानावस्थित रहकर, आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार किया था, जैसे शंकर ने हिमाचल शिखर पर; वही इस समय शिष्यों के साथ बैठकर आहार करने वाले महाप्रभु ईसा का स्तुति-गान करने लगा।

11. उस संगीत पर अधित्यका के सब वृक्ष मंद पवन में सिर हिला-हिलाकर चतुर्दिक् फैली हुई धवल चन्द्रिका की झालर से सुसज्जित पत्रों से ताल देने लगे।

12. जिस समय महाप्रभु ईसा भोजन कर रहे थे उस समय वसंत देवता द्वारा पुष्प-करण्डकों में संचित मधु-मरंद को छिड़कते हुए मंद मारुत उन पर अदृश्य ताल-वृंत (पंखा) झलने लगा।

13. इससे प्रभु के घने केश और मुख-कमल के भ्रमरालंकार (श्मश्रु) कालिन्दी की लहरों के समान ज़रा धीरे-धीरे हिलकर झलमलाने लगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : वल्लत्तोल की कविताएँ (पृष्ठ 11)
  • रचनाकार : वल्लतोल
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1983

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