मदनगीर

madangir

विनोद भारद्वाज

एक बस है मदनगीर की

मेरे सुधी पाठक

आप उसमें नहीं बैठ पाएँगे

वैसे यह अजीब बात है

इस शहर का एक बड़ा हिस्सा

सुबह से ही इस बस के चल देने को

परेशान नज़र आता है

इस बस की जो गंध है

उसे आप नहीं सह पाएँगे

यों तो मजबूरी है

आप भी लटकेंगे ही

आख़िर कहाँ जाएँगे?

बस का ड्राइवर

इसका आदी है

यों तो इस शहर की सभी बसें

आदमी को थोड़ा दौड़ाकर रस लेती हैं

पर गोद में बच्चे को लेकर बेतहाशा भागती माँ

आप मदनगीर में ही पाएँगे

एक बार एक ड्राइवर सनक गया

जाने क्या बात थी

वह नहीं रुका

थोड़े-से पैसेंजर साथ लेकर

वह इस शहर की तमाम चमकती

सड़कों में मस्त भाग निकला

पर वह जाएगा कहाँ?

“मदनगीर! मदनगीर!”

वह चिल्लाया दिल्ली में

हल्की ठंड की रात में

खिड़की के नज़दीक बैठा कवि

नागार्जुन की कलकत्ते वाली ट्राम की

कविता को याद करता है

थोड़े-से लोग हैं

ज़्यादातर जिनमें से बस में इतनी

ताज़ी हवा के आदी नहीं हैं

अपने काम की जगहों में

मिक्सी के रस को बनता देखकर

भले ही वे चमत्कृत हो जाएँ

वे सब लोग चिल्लाते हैं

मदनगीर!

मदनगीर!

वह कंडक्टर, वह ड्राइवर

शहर का एक बहुत ज़रूरी काम करते हुए

महरियों और मज़दूरों को

तड़के सुबह काम पर पहुँचा रहे हैं

रास्ते की शानदार कॉलोनियों वाले

साहब लोग इस बस में कैसे चढ़ेंगे

ड्राइवर कहता है

हैलो

दो-चार कवियों को कहता है

हैलो

इस बस में लटककर

कविता की मुश्किल है

ड्राइवर कभी-कभी मौज में

अपने पैसेंजरों को प्यार से देखता है

फिर ग़ुस्से से सड़क की तरफ़

फिर एक फ़िल्मी गाने में

डूब जाता है

बस का टिकट पाने के बाद लोग

ग़ुस्सा नहीं करते

वे सड़क की तरफ़ देखते हैं

चीज़ें जहाँ भागती हैं

लोग जहाँ हाँफते और दौड़ते

और फिर गिर पड़ते हैं।

स्रोत :
  • रचनाकार : विनोद भारद्वाज
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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