हमने अल्बर्ट एक्का को चौराहे का पहरेदार बना दिया है
वह देखता रहता है दिन-रात भीड़, जुलूस, धरने और प्रदर्शन
उसकी आत्मा वहीं ज़मीन पर बैठी सुनती रहती है
नेताओं के झूठे बोल और आश्वासन
धूल, गर्द, गर्मी और पसीने के बीच वह देखता है हमारी धरती का गौरव
बड़े-बड़े होर्डिंग्स और पोस्टर
लालची और बेईमान चेहरे
गाँवों-जंगलों से हाँककर लाए गए आदिवासियों की भोली निष्पाप सूरतें
वे कुछ नहीं समझते उनके हक़ में क्या है
न्याय क्या है लड़ाई क्या है
वे तो बस हथियार और जयजयकार हैं
शाम होते लौट जाते हैं अपने गाँव
दिन-भर गुड़, चना, सत्तू, दाल-भात खाकर
फिर सोचते भी नहीं कोई करेगा उनका भला
रोज़ रात वे सब मिलते हैं
एक जगह बैठते हैं सब
बिरसा मुंडा, अल्बर्ट एक्का, जतरा, बुधू भगत,
सिद्धू कान्हू, तिलकामाँझी, नीलांबर पीतांबर
मशालों के बीचों-बीच बैठे करते हैं गुफ़्तगू
फिर धीरे-धीरे इकट्ठे होते हैं ढेरों जा चुके लोग
अपने-अपने ताबूतों को उठाए तीर-धनुष हथियारों से लैस
गाते हैं कई पुराने गीत, जिनमें आज की कोई ख़ुदग़र्ज़ आवाज़ नहीं
वे सब अब लौटकर नहीं आएँगे
और हममें ऐसा कुछ नहीं रह गया
कि हम उनके गीतों के पीछे-पीछे जा सकें कुछ दूर तक
- पुस्तक : रोशनी के रास्ते पर (पृष्ठ 67)
- रचनाकार : अनीता वर्मा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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