Font by Mehr Nastaliq Web

लालटेन

lalten

अरुण देव

अन्य

अन्य

अरुण देव

लालटेन

अरुण देव

और अधिकअरुण देव

    अभी भी वह है इसी धरती पर

    अँधेरे के पास विनम्र बैठी

    बतिया रही हो धीरे-धीरे

    संयम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी

    काँच के पीछे उसकी लौ मुस्काती

    बाहर हँसता रहता उसका प्रकाश

    ज़रूरत भर की नैतिकता से बँधा

    ओस की बूँदों में जैसे चमक रहा हो

    नक्षत्रों से झरता आलोक

    अक्सर अँधेरे को अँधेरे के बाहर कहा गया

    अँधेरे का सम्मान कोई लालटेन से सीखे

    अगर मंद कर दिया जाए उसे थोड़ी देर में

    वह ढँक लेती ख़ुद को अपनी ही राख से

    सिर्फ़ चाहने भर से वह रौशन होती

    थोड़ी तैयारी है उसकी

    शाम से ही सँवरती

    भौंहें तराशी जातीं

    धुल-पुंछ कर साफ़ होना होता है

    कि तन में मन भी चमके

    और जब तक दोनों में एका हो

    उजाला हँसता नहीं

    कुछ घुटता है और चिनक जाता है कहीं

    भभक कर बुझ जाती है लौ

    वह अलंकार नहीं थी कभी भी

    अहंकार, ऐंठ, अति

    कि चुकानी पड़े क़ीमत और फिर जाए मति

    उसे तो रहना ही है

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण देव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए