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लाड़

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प्रियंका दुबे

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और अधिकप्रियंका दुबे

    उत्तरी ध्रुव के समंदर में तैरते

    बर्फ़ के एक विशाल पहाड़ पर खड़ी हूँ

    तुमसे हज़ारों मील दूर

    बीते वर्षों का सारा एकांत ख़ुद में समेटे।

    यहाँ,

    हर रात सूर्योदय की उतनी ही प्रतीक्षा करती हूँ,

    जितनी प्रेम की।

    रात के तीसरे पहर जब बर्फ़ का यह पहाड़

    तैरते-तैरते नाचने-सा लगता है

    तूफ़ानी समंदर में,

    तब अक्सर लहरों के शोर से

    नींद टूट जाती है मेरी।

    लेकिन अंतिम स्वप्न की स्मृति

    इन बर्फ़ीली अँधेरी रातों में भी

    मेरा पीछा नहीं छोड़ती।

    उस आख़िरी ख़्वाब में,

    आसमान का एक टुकड़ा दिखाई पड़ता है।

    हिंदुस्तान के उत्तर में

    पराशर झील से सिर्फ़ थोड़ा आगे,

    हम हरी घास पर लेटे हुए

    आसमान का वही साझा टुकड़ा देख रहे हैं।

    मैं भरी हुई हूँ इतना कि रो रही हूँ ख़ुशी से।

    ख़्वाब में,

    जब मुझे लाड़ आता है तुम पर

    तो जम चुका नारियल का तेल पिघला कर

    तुम्हारे बालों में लगाती हूँ।

    ख़ूब हँसती हूँ और कहती हूँ :

    'कलमों में चाँदी के तार झाँकने लगे हैं अब तुम्हारी'

    हम इतना हँसते हैं फिर जैसे रो रहे हों।

    लेकिन लाड़ के उस नर्म ख़्वाब से बाहर,

    असल में तो मैं

    यहाँ बर्फ़ के इस पहाड़ पर हूँ!

    यहाँ,

    काँच से दिखने वाले

    बर्फ़ के इस टुकड़े के

    सूरज में पिघल कर

    पानी हो जाने तक ही है मेरी उम्र बाक़ी।

    इसलिए तो,

    हर रात इस बर्फ़ के पिघल जाने की आकांक्षा में,

    सूर्योदय की उतनी ही प्रतीक्षा करती हूँ

    जितनी प्रेम की।

    कभी-कभी समझ नहीं आता

    कि मैं तुमसे लाड़ कर रही हूँ

    या अपनी मृत्यु से?

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियंका दुबे
    • प्रकाशन : समकालीन जनमत

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