क्या ऐसी स्त्री को जानते हैं

kya aisi istri ko jante hain

हरे प्रकाश उपाध्याय

हरे प्रकाश उपाध्याय

क्या ऐसी स्त्री को जानते हैं

हरे प्रकाश उपाध्याय

हम प्रेम नहीं करते

यानी हमारी भावनाएँ आत्मघाती नहीं हैं

उम्र में मुझसे वह थोड़ी-सी ज़्यादा ही बड़ी है

और मैं बच्चों-सी विनम्रता से पेश आता हूँ

बच्चों-सी मेरी ज़िद पर वह माँ-सी मोहब्बत करती है

मेरा यक़ीन है

उससे दोस्तों जैसा बोलूँ तो ख़ुश ही होगी वह

वह थोड़ा और खुलेगी शायद

बुरा तो नहीं ही मानेगी

आख़िर उसके एकांत का साथी हूँ मैं

लेकिन पता नहीं क्यों बड़ों की तरह ही देता हूँ आदर

पाँव उसके बड़े सुंदर हैं उसके चेहरे से ज़्यादा

कितना अच्छा होता पाँवों के भी आईने होते

तो मैं आईना होता

और उतारता उसके पाँवों के अक्स अपनी आत्मा में

कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है

उसके प्रति मेरी यह जो विनम्रता है

कहीं उसे चिढ़ाती तो नहीं होगी

पर अपनी इस आदत का क्या करूँ

क्या करूँ आख़िर इसका मैं

मैं कभी-कभी उसे छूना चाहता हूँ

फूलों की तरह नहीं, तकिये की तरह

कैसे दबाकर रख लेते हैं गोद में वैसे

उसकी त्वचा पर अपनी त्वचा फेरना चाहता हूँ

मिले रोम-रोम पसीना

जैसे पानी में पानी मिलता है

उसके होंठों को अपने होठों से

अपने हो…ठों से हल्के छू लेना चाहता हूँ

पर वह क्या चाहती है

क्या वह भी चाहती है?

कैसा भी मौसम हो कैसी भी हवा

उसके भीतर अपने गीत हैं

अपना चाँद अपना सूरज

हमारी सारी मुलाक़ातें

एकांत की वे रातें सब

उसके सूरज-चाँद की मोहताज रही हैं

देह के माधुर्य की वे सारी चर्चाएँ

उसके मौसम की उपज हैं

मुझे चिढ़ है और ख़ूब आश्चर्य

कि वह इतनी अपनी धूप,

अपनी नमी और हवाएँ

कैसे बना लेती है

उसे इस प्रकृति के समानांतर

अपनी प्रकृति की ज़रूरत ही क्यों है

वह क्या चाहती है

आख़िर उसकी और मेरी रुचियों और

ज़रूरतों की तमाम भिन्नताओं के बावजूद

वह क्या है कि हमारा केंद्र एक हो रहा है

आख़िर वह क्या है जो मुझे बेईमान बनाता है

अपनी कक्षा में छोड़कर

उन तमाम हमउम्र और चुलबुली लड़कियों को

मैं इस मैदान में जो बीहड़ जैसा है क्यों आया हूँ

वह कैसी स्त्री है

जिसकी चुनरी पर छपी परछाइयों को

चाँद की तरह विभोर निहार रहा हूँ

वह मुझे क्यों खेंचे है

क्या उधार है उसका मेरे पास

क्या पाना है मुझे उसके पास

उसे उसके घोड़े जैसे पति का प्यार नहीं मिला

कभी वह यों ही कह देती है

और उदास-सी हो जाती है

उसकी उदासी में इतना चटख़ रंग क्यों है खू़न जैसा

वह अपने पति से मिलने की तमाम रातों के बाद

मुझे फ़ोन करती है

और जो मैं उससे चिढ़ा-चिढ़ा बैठा रहता हूँ

क्यों काँप जाते हैं मेरे पैर घनघोर शराबी की तरह

ओल्ड मांक का अद्धा चढ़ाकर सोचता हूँ

शशि जिन्हें कहते हैं विषकन्याएँ

क्या वे भी ऐसी ही होती हैं

ऐसी औरत से आप प्रेम नहीं कर सकते तो क्या

क्या घृणा कर सकते हैं?

यदि प्रेम और घृणा दोनों नहीं कर सकते

तो क्या कर सकते हैं

क्या वही जो मैं कर रहा हूँ इन दिनों

क्या आप एक ऐसी स्त्री को जानते हैं?

स्रोत :
  • रचनाकार : हरे प्रकाश उपाध्याय
  • प्रकाशन : हिंदी समय

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