कोणार्क

konark

मायाधर मानसिंह

एक

हे कोणार्क, विगत यौवन,

मौन-दुःख में सैकत शयन।

तेरी इस जीर्ण देह पर आज भी है मुग्ध नयन,

देखता विश्व, करुणा में, बहा अश्रु तेरे दुख शयन।

जगत का शिल्पी-कवि देख तुझमें रूप राग,

माँगता आश्लेष तेरी वृद्ध देह में, शोभा की प्यास।

अंग-अंग चूमने को निरवधि करता भावना,

तुझमें हे गत यौवन!

दो

अनिन्दित हे बेला शोभन

जब तुम उठे थे गगन।

भेदकर सहसा नदी-नीलवेणी स्वर्ण सैकत

क्षीरोद प्रशांत गर्भ से विश्वरमा विष्णु-पत्नीवत।

अतर्कित खुले इस देश के अगणित लोचन

कोटि हाथ बंध, किया होगा तुम्हारा वंदन।

“जय स्वर्गनिवासी अवतीर्ण मर्त्य विभूषण।”

रुक्ष विश्व में शोभा वितरण।।

तीन

बारह सौ कवि कल्पना में,

जगत में बुद्ध अजाने में।

अज्ञात रहस्यमय शैशव बीता तेरा,

जब चकित दृष्टि विश्व की तुझ पर।

यौवन लावण्य-लीला खेलता अंग-अंग तव,

खिल उठता देह-देह में सुललित अंग सौष्ठव।

मंत्र सीखा जो मन—जब मन के उस पार में,

बारह सौ तो थे कवि कल्पना में।

चार

हो गया मलीन,

नभ में हुआ विलीन।

अगणित तारों की दिव्य ज्योति रजत धवल,

लाज ही लाज में व्योम में छुपे शीतांशु शीतल।

दूर नगमाला हुई भक्त्ति-मय में चकित पुलक

पदचुंबी, महासिंधु गाता स्तव, लहरी-अलक।

“हे चारु, भैरव कीर्ति मनुष्य की,

मंडित करो यह पुलिन

धन्य होता तेरी सेवा में।”

पाँच

पूर्णमासी शुभ्र हास में

धवलित सागर-लहरों में।

ताल-ताल लास्य भरो, जलदेवी गाती तेरी गाथा

औषधीश ज्योत्सना भर सिक्त्त करती तेरा तरुण मस्तक।

तेरे मौन कटाक्ष में व्योमचारी मार्ग में होकर मूढ़

अवतरण कर कानों ही कानों कह गए संदेश गूढ़।

अप्सरा वंदना करें स्वर्ग से आकर कौमुदी कल्लोल में

देकर तुम्हें पराजित उपहार में।।

छः

जीवन के सारे लीला खेल

तूने अपने धारण किए छविल।

सीखा तुमसे राजा ने शत्रु प्रति युद्ध अभियान,

मंत्री-सेनापति राजा करने को मंत्र दान।

प्रेमी-प्रेमिकाओं ने सीखा है आश्लेष

वीरों ने युद्धभूमि में अरि संग कौशल विशेष।

वेत्र हस्त गुरुजी चटशाला में अनुशासन बच्चों का

हे पाषाणी! तुझसे ही वह कौशल सीखा।

सात

विश्व में जितने विकास रूप के

जितने रूप विलास के चित्र के।

प्रकृति के अंग-अंग में सुषमा का जितना रूप,

मानव मन में सुषमा के जितने विकास

तुम तो पाषाण कवि, स्नेह में भर दिया निवेदन

अनंत कविता की धार बही तुम्हें करते परस।

हर पत्थर पर खुदी है कविता ही कविता

हे पाषाण! चारों ओर झंकार ही कविता।

आठ

सौध कुटीर बने शत-शत।

उपहार सारे पुष्पहार-वत।

तुम्हें घेर तुंग सिर सबका गर्व में ऊँचा किया,

विशाल नगरी, सिंधुभाल टीका हँसी में पुलक दिया।

दिग दिगंत सिंधु लाँघ भक्त्ति में पाल झुका लिया,

आई बहित्र पंक्त्ति, पूजा कर तेरा चिराल उड़ा दिया।

आनीत माणिक-रत्न से तेरा अंग हुआ आलोकित।

कक्ष तेरा ज्योति में भरकर हुआ चकित।

नौ

राज-प्रसाद का छोड़कर विभव

तूली-तल्प का पाने को सुख-अनुभव।

जानु टेक तेरा मुख देख-देख बिताए कई दिन

संन्यासी तन चरणों में पड़ कर तन किया क्षीण।

देश-विदेश से आई नारी किंकिणी-कंपन में

करती मुखरित दिन तेरे वक्ष पर लाक्षारस वर्ण में।

रंजित मधुर कर भूमि तेरी शोभा का उत्सव

लाज में भरकर अगणित पुष्पों का वैभव।

दस

क्रुद्ध हुआ कीर्ति-कीट काल,

क्रमशः हुई प्रकृति भी कराल।

गौरव-असहिष्णु फेर लिए नयन रक्त्ति

सुकोमल ग्रीवा तेरी त्रस्त भय में हुई बंकिम।

जादुई हास तेरा उस निठुर करुणा का कण

उपजा सका, चूर्ण किए क्रूर प्रहरण।

विश्व देखता आज मात्र उस शोभा का मंडित कंकाल,

अद्भपत लावण्य के नष्ट भ्रष्ट ये अस्थिकाल।

ग्यारह

फिर भी वे अस्थि भेद आज,

तरुणाई की ज्योति गिरे साज।

पके केश जीर्ण वेश फिर भी यौवन भरा,

खिल उठे, सयत्न घर, फिर अस्तराग कहो।

मुग्ध संसार तेरे चरणों में आज भी सुंदरी

सम दुखी सुबकती, व्याकुल हो जाती अपने-सी।

आयुष-कल्याण हेतु माँगे विश्व मंगल के लिए।

फिर भी, हे! सशक्त्त अस्थियाँ जगत के लिए।।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 56)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : मायाधर मानसिंह
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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