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खोए हुए की खोज के रूप में देखे हुए प्यार की प्रकृति

khoye hue ki khoj ke roop mein dekhe hue pyaar ki prkriti

केनेथ पैचेन

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केनेथ पैचेन

खोए हुए की खोज के रूप में देखे हुए प्यार की प्रकृति

केनेथ पैचेन

और अधिककेनेथ पैचेन

    तुम—नारी; मैं—पुरुष; यह—संसार;

    और हममें से हरेक तीनों की कृति है।

    बर्फ़ में ढँकी हुई पगध्वनियाँ; अजनबी आगंतुक;

    पंखटूटी अबाबील; भिक्षुणी; नर्तकी; जीसस के पंख

    ग्रामीण पथिकों पर : और कितनी ही सुंदर

    बाँहें हमारे चारों ओर, और परिचित वस्तुएँ

    लो कैसे आदिम ज्योति की लकड़ियों के सहारे

    सितारे आस्मान में चल रहे हैं, कितनी सहजता से वह

    अथाह नील अनंतता को प्रभु की गुफा में धारण करता है;

    जहाँ सीज़र और सुकरात

    पुरानी चट्टानों पर चित्रित आदिम गुहाचित्र से लगते हैं;

    देखो, अपनी अबोध आँखों से, संसार को,

    जिसमें हम दोनों हैं।

    तुम—लक्ष्य; मैं—यात्री; यह—खोज :

    और हममें-से हरेक तीनों का अभीष्ट है

    क्योंकि महानता तो केवल बैल है जो फँसी बैलगाड़ी

    को बाहर ठेलता है; और जहाँ हम जाते हैं वहीं विवेक है

    किंतु प्रतिभा एक विराट लघुता है, एक द्रवित मर्म स्पंदन

    जो यकसाँ है शिकारी और शिकार के लिए

    कितने आहिस्ते से, फूलों की नींद की तरह, मेरी प्यार!

    दूब बसी हवा रात के आकुल चरागाहों पर बहती है :

    देखो कैसे जंगलों की काष्ठ-आँखें हमारी

    अबोधता के स्थापत्य को एकटक देखती हैं

    तुम—एक गाँव; मैं—एक अजनबी; यह—एक रास्ता;

    और हरेक कुल मिला कर सबका निर्माण है

    अतः, यह नहीं कि मनुष्य अधिक करुणा धारण करे,

    या निष्करुण हो जाए; बल्कि यह

    कि उसकी ज़िंदगी उदारता का विस्तार पाए—

    और नगरों की पताकाओं पर मैल हो रथ के धब्बे,

    हम कितने दिन नितांत अकेले छूटे रहे मेरी प्यार, अब

    कितना विलंब हो चुका है जल पर घायल पावों को और

    हमें अभी समाप्त नहीं होना है।

    क्या तुम्हें अचरज होता था कि स्वर्ग की हर खिड़की

    टूटी हुई क्यों थी?

    क्या तुमने खुली समाधि जैसी ईश्वर की हथेलियों में

    अनाथ निराश्रितों को देखा?

    क्या तुम पिकी को युद्ध के नासमझी भरे संगीत से

    परिचित कराना चाहते थे?

    बर्फ़ में है दबी पगध्वनियाँ; अजनबी आगंतुक;

    पंखटूटी अबाबील; भिक्षुणी; नर्तकी; देहाती पथिकों पर

    जीसस की पंख-छाँह; और, हमारे चारों ओर हैं कितनी ही

    आकुल ज़रूरतमंद निराश बाँहें और तमाम चीज़ें

    जिनकी अब हमें जानकारी हो गई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 56)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : केनेथ पैचेन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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