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खींचती है मुझे अपनी ओर कू-कू की आवाज़-एक

khinchti hai mujhe apni or ku ku ki avaz ek

लक्ष्मीकांत मुकुल

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लक्ष्मीकांत मुकुल

खींचती है मुझे अपनी ओर कू-कू की आवाज़-एक

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    खिड़की से देखता हूँ 

    गिलोय की लात्तरों

    रेंड की गाँछ पर बैठी 

    कूक रही है कोयल

    गा रही है कोई मधुर गीत 

    अपनी बोली में 

    उन ध्वनियों से रहे हैं सप्तसुरों के राग

    बाँसुरी की मादक धुन 

    तुम्हारे मीठे बोल जैसी सधी आवाज़ 

    बतासे जैसी घुलती हुई अंतर्मन में 

    जीवन के रिक्तता में भरती हुई मिठास के स्वाद

    उस वनप्रिया के बोलते ही 

    प्रारंभ होता है ऋतुराज का आगमन 

    उसकी कुहू-कुहू से बौराती है आम्र मंजरियाँ

    उसके चहकने से मुदित होते हैं उदास बगीचे 

    उसके जैसी काली सही, पर साँवली रूपमती हो

    तुम उसकी आवाज़ हर बार खींचती है मुझे अपनी ओर

    ठीक, लौकी-फूलों-सी धवल दंत पंक्तियों के बीच

    तेरी तिरछी मुस्कान की तरह!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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