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खंडित अहं

khanDit ahan

जगदीश चतुर्वेदी

अन्य

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जगदीश चतुर्वेदी

खंडित अहं

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    अनिश्चय के बीच हाहाकार-सा जीवित हूँ मैं!

    मेरा अहं

    पश्चाताप से ठिठुरे

    और तमाम ज़िंदगी पीपल पर प्रेत की तरह छाए

    कौए की तरह

    चोंच मार-मारकर मुझे यंत्रणा दे रहा है!

    मेरी यातना के पंखों में छिपे हैं—

    यंत्रयुग के सर्प

    सर्पों ने तमाम फ़सलों को मसल डाला है

    लोग केंचुओं की तरह मर रहे हैं

    और असहाय मुर्ग़ों की तरह दे रहे हैं बाँग

    मैं इन असहाय चमगादड़ों की सड़ाँध भरी कोठरी में

    परकटे कबूतर-सा फड़फड़ा रहा हूँ—

    निरुपाय, बेबस!

    यह अनिश्चय की घुटन

    उगल रही है

    कछुओं के सफ़ेद अंडों-सी छोटी-छोटी इल्लियाँ

    और तमाम औरतों के शरीर पर

    कफ़न के कपड़ों का महीन बुर्क़ा डाले घूम रहे हैं डोम!

    केवल जीवित हैं।

    घोंघे और मच्छर और डोम

    और छिपकलियों के बच्चे;

    सभी बुद्धिजीवी उदास हैं या चुप हैं या अशांत हैं

    गौरैयों के भयभीत बच्चों से!

    मैं एक कटे धड़-सा

    पड़ा हूँ निश्चेष्ट

    और हो रहा हूँ चेतना शून्य;

    इन काष्ठ मूर्तियों और डोम तथा शंखनियों के नगर में

    डोलते हैं सर्प

    हः हः हः कर हँसते हैं मुर्दे

    और मेरा अनिश्चय

    मजार में ढके हुए मुर्दे-सा निरुपाय होकर छटपटाता है

    और ओढ़ लेता है मिट्टी का कफ़न!

    मुझे मिट्टी के कफ़न में

    एक निश्चय का आभास होता है

    मैं मुस्कराता हूँ

    और पास पड़े एक चींटे को मसलकर

    अंधी गली में मुड़ जाता हूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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