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खादी

khadi

अखिलेश श्रीवास्तव

अन्य

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और अधिकअखिलेश श्रीवास्तव

    मेरे गांधी बनने में तमाम अड़चनें हैं

    फिर भी चाहता हूँ कि तुम खादी बन जाओ

    मैं तुम्हें तमाम उम्र कमर के नीचे

    बाँधकर रखना चाहता हूँ

    और इस तरह कर लेता हूँ ख़ुद को स्वतंत्र

    घूमता हूँ सभ्यता का पहरुआ बनकर!

    जब तक तुम बँधी हो

    मैं उन्मुक्त हूँ

    गर कभी आज़ाद हो

    झंड़ा बन फहराने लगी

    तो मैं फिर नंगा हो जाऊँगा!

    चरख़े का चलना

    समय का अतीत हो जाना है

    अपनी बुनावट में अतीत समेटे तुम

    टूटे तंतुओं से जुड़ते जुड़ते थान बन जाती हो

    सभ्यताओं पर चादर जैसी बिछती हो

    और उसे बदल देती हो संस्कृति में

    जैसे कोई जादूगर रूमाल से बदल देता है

    पत्थर को फूल में!

    इस खादी की झिर्री से देखो तो

    एक बंदर, पुरुष में बदलता दिखता है

    वस्त्र लेकर भागा है अरगनी से

    बंदर के हाथ अदरक है

    चखता है और थूक देता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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