Font by Mehr Nastaliq Web

कवियों की कहानी

kawiyon ki kahani

कृष्ण कल्पित

अन्य

अन्य

कृष्ण कल्पित

कवियों की कहानी

कृष्ण कल्पित

 

गोरख पांडेय की याद में

एक

बहुत दूर से चलकर दिल्ली आते हैं कवि
भोजपुर से मारवाड़ से 
संथाल परगना से मालवा से 
छत्तीसगढ़ से पहाड़ से और पंजाब से चलकर 
दिल्ली आते हैं कवि
जैसे कामगार आते हैं छैनी-हथौड़ा लेकर 
रोज़ी-रोटी की तलाश में 

एक ही कपड़े की क़मीज़ें पहनकर 
वे उतरते हैं रेलवे स्टेशन पर 
फिर घुसते हैं दिल्ली में 
लाल क़िले की तरफ़ इस तरह देखते हुए 
जैसे देखा हो कई-कई बार 

दिल्ली ने पुकारा वे आ गए 
ग़रीबी ने लताड़ा वे आ गए 
मनुष्य के दुख की नई भाषा लेकर 
उसके संघर्ष की नई आवाज़ लेकर 
अपने धड़कते दिल लेकर वे आ गए 
उनके साथ है उनके औज़ारों की पेटी 

कुछ दिन उन्हें रोकते हैं दरबान 
कुछ दिन उन्हें रोकती हैं अँग्रेज़ी 
कुछ दिन उन्हें टोकते हैं कंडक्टर 
कुछ दिन उन्हें आती है 
टेलीफ़ून बीड़ी की याद 

कुछ दिन बाद 
वे शोक में डूबे एक दूसरे से मिलते हैं 
शोक-सभाओं में धीरे-धीरे 
आँसुओं को रोकने की कला सीखते हुए 

वे तपते हैं गरमी के दिनों में 
वे ठिठुरते हैं जाड़े की रातों में 
वे भीगते हैं बारिश की शामों में 
दिल्ली के मौसम पर झल्लाते 
वे उपनगरों में भटकते हैं 
किसी का पता पूछते हुए 
आया हूँ दिल्ली हकलाते हुए बताते हैं 
जैसे आए थे आप दस बरस पहले 

दुनिया की सबसे पुरानी कला के मज़दूर 
दिल्ली में मारे-मारे फिरते हैं 
उन्हें नहीं मिलता काम।

दो

वे आते हैं दिल्ली 
अक्सर घरवालों को बिना बताए 
वे आधी रात को निकलते हैं घरों से 
अँधेरे में ठिठकते हैं एक बार 
फिर पैदल ही चल देते हैं स्टेशन की ओर

वे मगध से आकर 
कोसल को नहीं जाते हैं 
वे अपने गाँवों से चलकर 
आते हैं दिल्ली 

दिल्ली आने वाली रेलगाड़ियों को टटोलो 
उसमें ज़रूर होगा कोई कवि 
वह सुनाता होगा 
‘सरोज स्मृति’ का कोई अंश 
नागार्जुन की कोई कविता 
या मुक्तिबोध की कोई पंक्ति

वे अलग-अलग दिशाओं से आते हैं 
अपनी-अपनी बोली लेकर 
हिंदी की कविता का निर्माण करने 
जो होगी भविष्य की भाषा!

तीन

जो मशहूर हुए 
उन्होंनेही नहीं लिखी कविता 
कविता उन्होंने भी लिखी है 
जिन्हें कोई नहीं जानता 

महान कवियों की कविता से महान है वह कविता 
जिनके कवियों का कोई पता नहीं 

उन्होंने भी लिखी है कविता 
जो मारे गए 
वे भी लिख रहे हैं कविता 
जो मारे जाएँगे।

चार

वे मरने के लिए आते हैं दिल्ली 
वे अख़बारों की इमारतों में मरते हैं 
प्रकाशन घरों के गोदामों में 
विश्वविद्यालयों में कला दीर्घाओं में 
और नाटकघरों में मरते हैं वे 

एक ठंडी हिंसा का शिकार होते रहते हैं 
कुलीनता उन्हें दबोचती है हर रोज़ 
एक धीमी मौत मरते हुए 
वे लिखते हैं कविता 

वे छिपाते हैं कविता को 
अपने आपको छिपाते हैं 
जैसे बच्चे छिपाते हैं चोट 

वे ज़िंदा रहने को आते हैं दिल्ली 
और मारे जाते हैं 
भूख से बेकारी से उपेक्षा से 
मरते हैं वे 
अपने अंत की तरफ़ घिसटती इस शताब्दी में 
वे बहुत ठोस कारणों से मरते हैं

इसी तरह होती है हर एक कवि की 
अपनी एक कहानी
जिसे लिखता है 
एक दूसरा कवि।

स्रोत :
  • पुस्तक : बढ़ई का बेटा (पृष्ठ 84)
  • रचनाकार : कृष्ण कल्पित
  • प्रकाशन : रचना प्रकाशन
  • संस्करण : 1990

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY