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कविता के भीतर की कविता

kawita ke bhitar ki kawita

मोना गुलाटी

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मोना गुलाटी

कविता के भीतर की कविता

मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    कविता के भीतर जो कविता है उसकी आँख

    मुझे

    घूरती है और बाँध देती है : जड़वत :

    यह आँख कहाँ है :

    कविता के भीतर की कविता के भीतर यह आँख

    कहाँ से फूटती है,

    उमगती है,

    मृणाल कोंपल कहाँ टेरती है।

    कविता के भीतर की कविता की

    आँख है! शब्दों में महक

    हो सकती है :

    पर कविता के भीतर की कविता के पास

    शब्दों के पार दौड़ती हुई आँख है

    जो मुझे घूरती है : बाँधती है : निस्तब्ध :

    भीतर जाने से पहले

    कितना निस्तब्ध होना पड़ता है

    आकाश को : धरती के

    भीतर जाने से पहले कितनी आहट

    लेनी पड़ती है

    वायु को : शब्दों के

    भीतर दौड़ने से पहले

    कितना सख़्त होना पड़ता है

    आदमी को :

    कविता के भीतर का सभी कुछ

    पिघलती काया को बचाने का संकल्प लेकर

    जूझता है : कविता के भीतर तिरती आँख

    कितना फैलती है!

    कविता के भीतर की कविता

    आँख है!

    सभी दृश्य सपाट खुलते चले जाते हैं : सभी काल,

    बँधे आते हैं : कविता के भीतर की कविता की आँख में

    क्या तोड़ है!

    कंधे पर पिघलते हाथ एक ही साँचे में ढलने लगते हैं :

    कंधा और हाथ

    कुछ भी नहीं रहता : केवल तिरती आँख है।

    *

    अंतिम संस्कार के छूटने-सी

    कविता के भीतर की कविता शमशान में प्रज्वलित

    वन्हि का घिसता हुआ ताप है :

    कविता के भीतर की कविता की आँख

    कहाँ नहीं खुलती :

    आँख ही आँख है :

    बस आँख है :

    शब्दों के छिलके उतर गए हैं :

    शब्दों के शब्द छूट गए हैं :

    अनिर्वचनीय बात है :

    शब्द पारदर्शी हो गए हैं :

    कविता के भीतर की कविता की आँख घूरती है :

    भीतर तक पैठती है आँख

    कविता के भीतर की कविता की!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 75)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

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