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कविता का काम

kawita ka kaam

सिद्धेश्वर सिंह

सिद्धेश्वर सिंह

कविता का काम

सिद्धेश्वर सिंह

कविता में मन रमता है

मन में रमती हैं कविताएँ

जीवन का गद्य कुछ हो जाता है आसान

'इति सिद्धम' के मुहाने तक पहुँचते दिखते हैं

रोज़मर्रा के कामों के निर्मेय-प्रमेय

हो सकता है यह आत्मतोष हो

या कि कोई स्वनिर्मित शरण्य

फिर भी

कविता में मन रमता है

मन में रमती हैं कविताएँ।

कामकाज के बीच समय मिले यदि थोड़ा

तो खुल जाती है कविता की किताब

या फिर शुरू होता है

अधूरी कविताओं को पूरा करने का काम

यह भी तो हो सोच की सीढ़ियों से

चुपचाप उतरते आते हैं पंक्तियों के पाँव

सहकर्मी मुस्कियाते हैं

कनखियों से देखते हैं बार-बार

ऐसे जैसे कि मैंने चुरा लिया हो

कोई ज़रूरी गोपनीय दस्तावेज़

और चुपके से उसकी नक़ल कर रहा हूँ तैयार।

कक्षा से लौटता हूँ

चॉक से सने हाथ लिए

अभी-अभी पढ़ाया है काव्यशास्त्र

ज़ेहन में अब भी मथ रहा है रस-सिद्धांत

पता नहीं यह कैसी निष्पत्ति है

पता नहीं किस क़िस्म का साधारणीकरण

कि स्टाफ़ रूम तक में

बात-बहस करते

साथ चले आए हैं भरतमुनि

बाथरूम में हाथ धोने जाता हूँ

तो मिल जाते हैं विद्यापति गुनगुनाते—

'सखि हे, की पूछसि अनुभव मोय'

आलमारी खोलता हूँ

तो वहाँ से आवाज़ देते हैं घनानंद—

'तलवार की धार पै धावनो है'

और मैं हो जाता हूँ लगभग सावधान

गोया कविता लिखना हो कोई ख़तरनाक काम।

ऐसे ही चल रहा है जीवन

ऐसे उभर रहा है राग-विराग

ऐसे ही निभ रहा है कविता का साथ

गुणीजन भले ही मानें इसे पुनरुक्ति दोष

फिर-फिर कहूँगा

कि कविता में मन रमता है

मन में रमती हैं कविताएँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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