कविता एक पुल है

kawita ek pul hai

निर्मला गर्ग

निर्मला गर्ग

कविता एक पुल है

निर्मला गर्ग

कविता एक चिड़िया है

गाहे-बगाहे

पंख फड़फड़ा लेती है

क्षणांश ही सही

टूटता है भीतर का सन्नाटा

कविता धूप की एक कतरन है

कौंध उठती है

परत-दर-परत जमे बादलों पर

बूँद भर ही सही

पिघल जाता है रूखा ठंडापन

कविता लोहे का एक टुकड़ा है

पर उसे कड़ा बनाकर

पहना नहीं जा सकता

कलाइयों में

हथियार गढ़कर

इस्तेमाल किया जा सकता

अपने ही विरुद्ध

उसे सिर्फ़ पुल बनाया जा सकता है

आदमी और आदमी के बीच।

कविता वह भाषा है जिसे रचने के लिए

किसी लिपि की नहीं

ज़रूरत होती है तोड़ने की

उस खोल को

पलता है जिसके अंदर हमारा अहं

हमारी मनीषी मुद्रा

कविता धान की एक

कनी हो सकती है

धरती की कोख को सार्थक करती

वह उस व्यक्ति का हाथ हो सकती है

जो बस के हिचकोलों से बचाने के लिए

किसी ऊँघते बच्चे

सिर के पीछे अनायास जाता है

वह टी.बी. के मरीज़ की

खाँसने की आवाज़ हो सकती है

रोशनी और हवा के लिए

छटपटाते केंचुओं से भरी

दरार हो सकती है

पर वह विषदंत नहीं हो सकती

जो ज़हर सिर्फ़ डसने के लिए उड़ेलता है

दवा के लिए नहीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : यह हरा ग़लीचा (पृष्ठ 37)
  • रचनाकार : निर्मला गर्ग
  • प्रकाशन : यात्री प्रकाशन
  • संस्करण : 1992

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