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कवि-कर्म

kawi karm

अखिलेश श्रीवास्तव

अन्य

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और अधिकअखिलेश श्रीवास्तव

    मैं ख़ाली पड़े तसलों में

    ताजमहल की मज़ार देख लेता हूँ

    सरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँ

    पूँजी की गुर्राहट।

    तुम नदी की कल-कल सुनना

    मैं सुनूँगा उसमें ज़हर से गला घुटने पर

    घों-घों की आवाज़

    शीशम के दरख़्त कटने पर

    एक लंबी चोंss में

    उसकी अंतिम कराह सुनता हूँ

    उस दिन कोयल की कूक में

    शोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँ

    जो बेघर होने पर गाई जाती है।

    मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँ

    उसके पहले ही उन आँखों में

    भेड़ियों का डर देख लेता हूँ

    मैं देख लेता हूँ

    ख़ाली कनस्तरों का अकेलापन

    ठंडे चूल्हे की कँपकँपाहट

    सुन लेता हूँ

    खेत में दवाई छिड़कने से

    कीटों की सामूहिक हत्या होने पर

    फ़सल का विलाप

    मैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँ

    मदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँ

    तो साथी नचनियाँ की नाभि देखते हैं

    मैं पेट देखता हूँ और अंदाज़ता हूँ

    कितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।

    तुम मेरे आँखों पर घोड़े का पट्टा भी बाँध दो

    तब भी दो सोटों के बीच समय निकाल कर

    देख ही लूँगा राह पर छितरे हुए दुख

    पथिक की प्यास

    तुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लो

    फिर भी मैं चख ही लूँगा तुम्हारे हिस्से का विष

    मैं दुख-भक्षक हूँ, विषपायी हूँ

    मैं कवि हूँ

    मेरे रुधिर का रंग नीला है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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