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कवि

kawi

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

गायत्रीबाला पंडा

अन्य

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और अधिकगायत्रीबाला पंडा

    जहाँ-जहाँ ठोकर खाती हूँ

    वहीं से शुरू होती है कविता।

    कविता का अर्थ

    समय के बाघ-सा

    अकारण झपट्टा मारना है

    कविता का अर्थ

    ख़त्म हो रहे जंगल का

    घुप्प अँधेरा है

    कविता का अर्थ

    टुकड़े-टुकड़े हो टूट जाना है

    आकाश का

    कविता का अर्थ

    उन सभी निगाहों का

    धुँधला कुतूहल है।

    जहाँ-जहाँ ठोकर खाती हूँ

    वहीं से शुरू होती है कविता।

    गुच्छे के गुच्छे शब्द,

    शब्दों की इधर-उधर दौड़-भाग

    मलिन पड़ती धूप

    सुनसान लंबी राह, जीवन की।

    कोई कहता है इस कविता में

    उन लोगों की बातें नहीं हैं

    उजड़ते जा रहे हैं जिनके घर-द्वार

    जो लोग जल, ज़मीन और जंगल के लिए

    लड़ रहे हैं, मर रहे हैं, इतिहास रच रहे हैं

    जो बिना सींग के माटी खोदते हुए

    असमय ही माटी बनते जा रहे हैं।

    उनकी भूख-प्यास

    दुःख यातना, आँसू कीचड़

    यदि कविता नहीं बन सकती

    वह कविता कविता नहीं

    शब्दों की आतिश-बाज़ी है।

    समाज को सुधारने का काम कवि का नहीं

    कवि प्लेकार्ड लेकर खड़ा नहीं होता राजमार्ग पर

    धनुष-बाण लेकर शरीक नहीं होता आंदोलनों में

    नहीं उठाता बंदूक़

    नहीं भाँजता तलवार

    घर्घर नाद करता धरती नहीं कँपाता

    षडयंत्र या स्लोगन नहीं बनता

    किसी के पक्ष या विपक्ष में

    खड़ा नहीं रहता रणभूमि में।

    कवि जो कुछ करता है सिर्फ़ कविता में

    कवि जो कुछ कहता है सिर्फ़ कविता में

    कवि कविता में जीता है

    कवि कविता में मरता है

    कविता में क्षोभ परोसता है

    कविता में शोक पालता है।

    कवि भोगता है दिल्ली में हुए कुकर्म का दुख

    कवि को उद्वेलित करती है पिपिली पीड़िता की बेचैनी

    कलिंगनगर में कटी हथेली देख

    विचलित हो उठता है कवि

    कंधमाल की आग की आँच से भी

    आग-बबूला हो जाता है कवि

    कवि नंदीग्राम से नारायणपटना जाता है

    ख़ुद को बिछा देता है घटनाओं के बीच

    उसकी आत्मा अवश्य पहुँच गई होती है

    मृत कपास किसान के द्वार पर

    वह हतप्रभ पड़ा रहता है

    महाकालपड़ा गाँव की पीड़िता की दुर्दशा में

    ना तो वह राजनीति में होता है

    ना ही सामाजिक कार्यकर्ताओं के समूह में।

    पर वह सबकुछ देख रहा होता है

    आक्रांत हो रहा होता है

    हो रहा होता है ध्वस्त-विध्वस्त

    शर्मसार, मर्माहत।

    हर बार ध्वंस स्तूप के नीचे

    बटोर रहा होता है संभावनाएँ सूर्य-सा

    कुछ उगे या उगे

    संभावनाओं के आकाश में

    फिर भी वह उपजाता है संभावनाएँ?

    कवि विवरणकार नहीं

    जो शब्द तुरंत उतर आते हैं काग़ज़ पर

    उन्हीं को ऊपर-नीचे सजाता है

    गढ़ता है, तोड़ता है, तोड़ता है, गढ़ता है

    शंख, चक्र, गदा, पद्म लेकर खड़े होने के

    कौशल में ख़र्च नहीं करता समय-असमय।

    मन ठीक हो तो

    सुनसान नदी के किनारे-किनारे डोल सकता है

    चिलचिलाती धूप में हो या आधी रात में

    उसके पदचिह्न बने होते हैं गीली रेत पर

    कुछ क्षण बने रहते हैं

    फिर मिट जाते हैं।

    कुछ ही क्षणों में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : खो जाती है लड़कियाँ (पृष्ठ 44)
    • रचनाकार : गायत्रीबाला पंडा
    • प्रकाशन : आलोकपर्व प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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