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पतंग

pata.ng

संजय चतुर्वेदी

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और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    रोचक तथ्य

    इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

    तीन तिरछी पट्टियों वाली पतंग

    मई की शाम के आकाश में

    ऊपर जामुनी

    बीच में वसंती

    और नीचे आसमान के दीप्तिमान नीले में

    जादुई फ़िरोज़ी

    अंतरिक्ष के अक्षांशों को बदलती

    वायु के आघूर्ण

    और बरनूली की प्रमेय पर सवार

    हिचकोले खा के नाव-सी उतरती है वर्तमान में

    जैसे उतरता हो आकाशदीप

    क्षितिज की कोमल और अँधेरी रेखाओं में

    अचानक घास हवा और ज़मीन से

    निकलते हैं बच्चे

    वीर-विहीन धरती पर कुछ होने की शुभाशंका की तरह

    बेस्वाद घरों की आकृतियों को अपनी लग्गियों से जगाते

    सर्र से निकल जाते है सूरज के सामने से

    तेज़ भागती गाड़ियों और टेनिस खेलकर लौटती औरतों के सामने से

    उड़नतश्तरी अटक जाती है टेलीफ़ोन के तार में

    अपने हाथ ऊपर उठाते हैं

    डोर से बँधे सूफ़ी

    और यह उतरा हंस

    उच्छल जलधि में

    छूते ही टूट जाता है शिव का धनुष

    टंकार से काँपती हैं दसों दिशाएँ

    बोलती बंद सन्निपात और हड़कंप

    फिर सब सहज

    मुक्त होकर निश्छल लौटते हैं

    एक दूसरे को चपतियाते

    छोटी-छोटी बातों पर हँस-हँसकर लोटपोट होते

    ये शिव-धनु-भंजक मानव के रणंजय

    एटलांटिक और प्रशांत को जोड़ने वाले पाँव

    उधर कहीं समेटी जा रही है बाक़ी बची डोर

    अगली यात्रा के लिए तौले जा रहे हैं जहाज़

    तेज़ी से काम कर रही हैं अभियान की सूरतें

    कभी हारने वाली आशाएँ

    उत्तरी ध्रुव एंटार्कटिका सगरमाथा को छूने वाली उंगलियाँ

    इधर सूरज हो गया दार्शनिक अरुणाभ

    शिव के आशीर्वाद की तरह

    और यह देखो फिर एक हरी पतंग ने

    गाँठ की तरह जोड़ दिया हमारी डोर को

    सूर्य के जाते हुए रथ से

    लोकातीत सूत्रों तक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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