कौन

kaun

वसु गंधर्व

कौन प्रतीक्षारत कि पार करनी थी यह दुर्गम नदी

कि लाँघने थे पर्वतों के सुस्ताते उदर

कौन बोलता प्रेम के शब्द

कि जल की तरह निमग्न

बहने देना था अपने श्रवण को

अपनी कंदराओं से बाहर

कौन ज्वलंत इतना

कि जला देनी थी देह से आत्मा तक सब परतें

कि अपने कंकाल तक संकुचित रखना था

अपने होने के सभी रहस्यों को

कौन इतना विस्मृत, उजला, छूटता

कि पिरो लेना था स्मृति की अनंत तहों को

उसके नाम के संगीत में

स्मृतिलोप हुए बूढ़े की तरह

बुदबुदाना था उसकी असंभव मीमांसा तक

अनर्गल शब्द

कौन असंभव इतना

कि बदल देने थे

संभावनाओं के शिल्प

इतना कठोर कि उसकी दरारों में भरनी थी

अपनी पिघली हुई काया

इतना असह्य कि सहना ही था उसका ताप

इतना दूर कि पार करनी ही थी यह दुर्गम नदी

लाँघने ही थे पर्वतों के सुस्ताते उदर।

स्रोत :
  • रचनाकार : वसु गंधर्व
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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