कटक में गरमियों की बरसात

katak mein garamiyon ki barsat

भगवान जयसिंह

भगवान जयसिंह

कटक में गरमियों की बरसात

भगवान जयसिंह

कटक में गरमियों की अपराह्न

सड़क के किनारे सूने पेड़ से

टकराता पश्चिमी तिरंग पवन

लरजती डालें झुक-झुककर

चूम लेतीं उजाड़ धरती

एक बौछार बरसा होने के संकेत को

तकता रहे मयूर आकाश की ओर।

शहर की हर राह पर

सुंदर मेघ की हवा;

काँच की खिड़की पर अलंधु-सी घिर आती

शहर पर साँझ

पक्षियों की सहमी फड़फड़ाहट में

उठ बैठती मंदाकिनी

घर पर वह निःसंग एकाकी।

कटक में मेघ घिरते

बालू झड़ आछन्न करता घोड़ाघाट पुल

उड़ते सूखे पत्ते भर देते

पुरीघाट, मंदिर और मस्जिद

सड़े पानी की गंध में

प्रमत्त होती पश्चिमी हवा

स्कूल से लौटती लड़कियों के स्तन पर

दिख जाते आसन्न वर्षा के क्षत।

एक निश्चल स्थिर बिन्दु-सा

सोया है सनातन

शीशम के पेड़ से टकराता झड़ का मर्दल

उसके सद्यजात पुत्र के जीवन नाच में

मृदंग की ताल पर—

झूम जाता अश्वारोही

किन्तु अश्व लौट जाता पल भर रुककर।

गड़गड़ाहट के पटाखे शहर भर में

काँप जाती छाती,

अनुपमा प्रीत-सी

या हिल रहे बया के घोंसले-से

तिनका उड़ जाने की तरह

झड़ झूमता अँधेरे को चूम-चूम

तेज़ वर्षा की छुरी में

बिंध जाती झड़ क्लांत कटक नगरी।

वर्षा का तांडव मेरे घर के सामने

वर्षा पीटती शहर में,

काठ पर हाथ की छड़ी-सी

कई-कई छिपकली और

चींटियों को

त्रस्त और विवस्त्र कर

भिंगोकर सहमे साँप की केंचुली

और मेरे शुष्क जीवन में

दीर्घतर कर

किसी अतिक्रम रात की विपत्ति।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 256)
  • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
  • रचनाकार : भगवान जयसिंह
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2009

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